अष्टांग योग क्या है
अष्टांग योग क्या है की जानकारी हमें महर्षि पतंजलि के योग दर्शन से मिलती है महर्षि पतंजलि का अष्टांग योग दर्शन व्यक्तित्व विकास की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इन्होंने मानव के व्यक्तित्व विकास के लिए अपने योग दर्शन में विभिन्न सूत्रों द्वारा विशुद्ध रूप से दिशा निर्देश दिया है। बुद्धि बल स्वास्थ्य तथा मानसिक शक्तियों के विकास के लिए पतंजलि का योग दर्शन अष्ट चक्र की बात करता है जिसका विभिन्न शिक्षण विधियां के अनुप्रयोग के माध्यम से अभ्यास करके व्यक्तित्व को परिपक्व एवं उन्नतिशील बनाया जा सकता है। साधना की दृष्टि से अष्टांग योग एक क्रमबद्ध प्रमाणिक मार्ग है।
पतंजलि के अनुसार अष्टांग योग के आठ अंग हैं। योग की पूर्ण साधना के लिए इन आठ अंगों का अभ्यास आवश्यक है।
इन अष्टांगों में प्रथम दो यह यम नियम मुख्यतः आचार संबंधी अभ्यास हैं।
इसके दो अंग आसन प्राणायाम शरीर को भौतिक रूप से योग अभ्यास के योग्य बनाने के लिए उपयुक्त हैं।
पांचवा प्रत्याहार मुख्यतः इंद्रिय निग्रह या नियंत्रण का उपाय है और इस पक्ष की प्रक्रियाएं धारणा ध्यान व समाधि आदि पूर्ण रूप से मानसिक तथा आध्यात्मिक साधनाएं हैं।
पतंजलि ने यम नियम आसन प्राणायाम प्रत्याहार को बही रंग योग कहा है।
तथा धरना ध्यान समाधि को अतरंग योग कहा है।
चित्त की शुद्धता और पवित्रता के महत्व को बनाए रखने के लिए योग दर्शन में योग क्रिया के लिए आठ प्रकार के साधन बताए हैं:- यह अष्टांग योग मार्ग इस प्रकार हैं
आठ अंगों से मिलकर बनता है अष्टांग मार्ग:-
अष्टांग योग क्या है? यह जानने के बाद अब हम यह जानेंगे कि अष्टांग योग के आठ अंग कौन-कौन से हैं।
- यम
- नियम
- आसन
- प्राणायाम
- प्रत्याहार
- धारणा
- ध्यान
- समाधि
महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग का आधार यम और नियम को मानते हुए इन्हें प्रारंभ में रखा है।
यद्यपि इनका पालन सभी के लिए श्रेष्ठ है लेकिन एक आदर्श विद्यार्थी और योगी के लिए अति आवश्यक है क्योंकि इसके बिना ज्ञान अर्जन की क्रिया सीखने की प्रक्रिया व व्यक्ति विकास की प्रक्रिया पूरी नहीं होती है।
एक आदर्श विद्यार्थी का जीवन भी एक योगी का ही जीवन है। उसे भी अपने लक्ष्य को पाने के लिए आत्म अनुशासन और साधन के इस मार्ग से गुजरना पड़ता है जिस मार्ग से एक योगी गुजरता है।
- यम
यह अष्टांग योग का पहला अंग या मार्ग है। इंद्रियों के संयम की क्रिया है।
यम वे सिद्धांत या गुण है जिनका सामाजिक महत्व है। इनका विकास विद्यार्थी जीवन से ही करना चाहिए क्योंकि इन गुना के पालन से विद्यार्थी के लक्ष्य प्राप्ति में सहायता मिलती है।
यह के पांच प्रकार हैं जो निम्न
- अहिंसा
- सत्य
- अस्तेय
- ब्रह्मचर्य
- अपरिग्रह
अहिंसा
अहिंसा का अर्थ है किसी भी प्राणी को मन, वाणी और कर्म से कष्ट न देना।
सत्य
इसका अभिप्राय मन वचन तथा कर्म से सत्य का दृढ़ता पूर्वक पालन करना है। सत्य का पालन सभी के लिए श्रेष्ठ है क्योंकि सामाजिक दृष्टि से भी आपसी विश्वास सत्य पर ही आधारित है और विश्वास के आधार पर ही समाज एवं विश्व के कार्य पूरे होते हैं।
अस्तेय:- चोरी न करना
चोरी अथवा छिपाव का अभाव अस्तेय है गीता में उल्लेखित है कि मन वचन वह कम से पराया वस्तु की प्राप्ति की इच्छा ना करना ही अस्तेय हैं।
अस्तेय के भाव से संतुष्टि का भाव उत्पन्न होता है तथा सांसारिक वस्तुओं के प्रति लालसा नहीं रहती। यही योग का उद्देश्य है । हम सभी जानते हैं की चोरी एक सामाजिक बुराई है कौन मेरा इसलिए विद्यार्थी को योगी की तरह संतुष्टि का भाव जागृत करना चाहिए। अभिभावक एवं शिक्षकों का दायित्व है कि वह बालकों को शुद्ध आचरण की शिक्षा जीवन के विभिन्न स्तरों पर दें।
ब्रह्मचर्य
जो ब्रह्म का आचरण करता है। अर्थात मन सहित इंद्रियों का ब्रह्म आचरण में प्रवाहित होना ब्रह्मचर्य है। सब प्रकार, विषयों का चिंतन मिट जाना ब्रह्मचर्य है। जब ब्रह्मचर्य व्रत की दृढ़ अवस्था आ जाती है तो सामथर्य,वीर्य,शौर्य और पराक्रम का लाभ हो जाता है।
आदर्श विद्यार्थी के लिए ब्रह्मचर्य का पालन बहुत जरूरी है। विद्यार्थी जीवन पुरुष शक्ति को विकसित करने का समय है। यदि विद्यार्थी ब्रह्मचर्य का पालन नहीं करता है तो कम उम्र में भोगों के प्रति लालसा उत्पन्न हो जाती है। जिससे पुनरावृत्ति की भावना बढ़नी शुरू हो जाती है। असयमित जीवन से समय और शक्ति नष्ट होती है तथा विद्यार्थी अपने लक्ष्य से भटक जाता है।
योग काम शक्ति के रूपांतरण का एक प्रयोग मार्ग बताता है वह है व्यायाम और प्राणायाम का अभ्यास। योग अभ्यास से इस शक्ति का उधर आगमन अर्थात ऊपर की ओर जाना होता है अर्थात जिससे विद्यार्थी में तेज और सुंदरता का विकास होता है। यही बात प्रसिद्ध मनोविश्लेषक सिगमंड फ्राइड भी मानते हैं।
अपरिग्रह
सामाजिक संदर्भ में आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का स्वार्थ की दृष्टि से संग्रह न करना, अपरिग्रह कहा जाता है। महात्मा बुद्ध ने भी ऐसा ही उपदेश दिया था।
2.नियम
नियम पांच होते हैं।
- शौच
- संतोष
- तप
- स्वाध्याय
- एवं ईश्वर प्रणिधान
यमो के सम्मान नियमों का पालन करना भी आवश्यक है नियम का अर्थ है सदाचार को श्रय देना हैं।
शौच
सोच से अभिप्राय बाहिय और आंतरिक अर्थात शरीर और चित् की शुद्धि से होता है। इससे अंतःकरण की शुद्धि,मन में प्रसन्नता,चित्त की एकाग्रता,इंद्रियों का वश में होना और आत्म साक्षात्कार की योग्यता विकसित हो जाती है। शारीरिक शुद्धि बाह्य ही नहीं बल्कि आंतरिक शुद्धता भी आवश्यक है।
संतोष
संतोष का अर्थ है जो सम है जिसमें विषमता नहीं है वह एक परम तत्व परमात्मा है। उसे तोष या तृप्ति प्राप्त होना संतोष है।
अर्थात संतोष से उत्तम कोई सुख नहीं है ऐसे सर्वोत्तम सुख का लाभ संतोष से मिलता है। संतोष सभी के लिए आवश्यक है क्योंकि असंतुष्ट व्यक्ति का मन बहुत चंचल रहता है। वह कभी भी अपने आप से तथा अपने वातावरण से भी संतुष्ट नहीं होता है उसकी वृत्तीय बाह्य अधिक रहती है जिससे ईर्ष्या जलन आदि दुर्गुण पैदा होते हैं अपने पर्यतन से जितना प्राप्त हो उतने से ही संतुष्ट रहना संतोष कहा जाता है।
तप
ईस्ट के अनुरूप मन सहित इंद्रियों को तपन ही तप हैं। तप से अभिप्राय सर्दी गर्मी भूख प्यास सुख-दुख आदि द्वंदों को सहन करने से होता है। इस अवस्था को प्राप्त कर लेने पर मन और इंद्रियों पर नियंत्रण हो जाता है।
ताप का दूसरा अर्थ है प्रज्वलित करना। तब मुख्यतः तीन प्रकार का होता है कायिक वाचिक और तीसरा मानसिक। ब्रह्मचर्य और अहिंसा कायिक तप है।
बुरे वचनों का प्रयोग न करना ईश्वर का गुणगान करना तथा स्वयं के लिए परिमाण का विचार किए बिना सत्य बोलना दूसरों की निंदा ना करना आदि वाचिक तप हैं। मानसिक स्थिति का विकास करना एवं आत्म संयम करना मानसिक तप है।
स्वाध्याय
स्वयं का अध्ययन स्वाध्याय है। स्वयं का अध्ययन करते हुए आत्म मूल्यांकन द्वारा अपनी कमियों को दूर करते हुए आत्म विकास की प्रक्रिया में आगे बढ़ना ही स्वाध्याय है।
आत्मिक विकास के लिए अध्ययन मनन आत्म विश्लेषण अंतर दर्शन द्वारा अपनी चेतना के विकास का प्रयत्न करना। अपने विकारों अशुद्ध विचारों को मनन एवं चिंतन के द्वारा सतत दूर करते रहना एवं पर्यतन करना स्वाध्याय है।
ईश्वर प्रणिधान
ईश्वर प्राणी धाम से तात्पर्य ईश्वर का ध्यान एवं स्मरण से होता है। परम सत्ता के प्रति श्रद्धा रखकर समर्पित रहना ही इस पर प्राणीधान है।
आसन
आसान से महर्षि का आशय स्थिर बैठने से है:-
"स्थिरसुखमआसनम"
स्थिर सुख पूर्वक बैठने का नाम आसान है। आसान द्वारा शरीर स्वस्थ होता है तथा साथ ही मन भी स्थिर होता है।
आसान को मुख्य रूप से तीन भागों में बांटा जा सकता है:-
- ध्यान आसन
- विश्रांतिकर आसान
- संवर्धन आत्मक आसान
ध्यानआत्मक आसान
इसके अंतर्गत मुख्यतः निम्नलिखित आसान है:- सिद्ध आसान पद्मासन भद्रासन मुक्त आसन वज्रासन स्वास्तिक आसान। इन आसनों का अभ्यास ध्यान से पूर्व करना आवश्यक है।
विश्रांति कर आसान
कुछ आसान ऐसे होते हैं जिनके द्वारा विश्रांति प्राप्त होती है। जैसे शवासन या व कयोत्सर्ग ।
संवर्धनात्मक आसन
संवादनात्मक आसन के अंतर्गत मुख्य रूप से निम्नलिखित आसान है:- सिंहासन, गोमुखआसान, धनुर आसान, मत्स्य आसान, पश्चिमोत्तासन, मत्स्य इंद्रियासन, मयूरासन, कुकुट आसान, मंडुका आसान, गरुड़ासन, भुजंगासन आदि आसनों का अभ्यास शारीरिक विकास के लिए किया जाता है।
आसनो का नामकरण विभिन्न जंतुओं के नाम पर किया गया है क्योंकि योगासन करते समय आसन विशेष की अंतिम अवस्था जंतु विशेष की आकृति से सामान्य रखती है। आसमान पर अधिकार प्राप्त करने पर लाभ हानि जय पराजय एस ऐप्स शरीर मन आत्मा इस प्रकार की द्वितीय अवस्था नष्ट हो जाती है। तब साधक योग मार्ग की चौथी स्थिति प्राणायाम के लिए तैयार होता है।
अनुभव कर सकता है कि मैं ईश्वर का अंश हूं। मेरे निराश होने का कोई कारण नहीं है क्योंकि इस पर यह शक्ति मुझे विरासत में मिली है मेरा जीवन प्रशांत और उत्साह के लिए है ने की दुख चिंता या शौक के लिए। ईश्वर के प्रति समर्पण हमें उन संकट के क्षणों में शक्ति प्रदान करता है जब पूरी दुनिया हमारा साथ छोड़ देती है। जब हम बिल्कुल अकेले पड़ जाते हैं उसे समय भी हमें अनुभूति होती है कि इस सृष्टि की असीम और अनंत शक्ति मेरे साथ है मेरे क कण-कण में व्याप्त है।
प्राणायाम
योग का चौथा अंग प्राणायाम है।
सांस वायु के नियंत्रण से चित में स्थिरता का उदय होता है। यह साधना का एक स्तर है। इसका नाम प्राणायाम है। दूसरे शब्दों में आसनों के द्वारा शरीर को सक्षम बनाने के पश्चात प्राणायाम के द्वारा सांस का गति नियमन विस्तार और अनुशासित करना ही प्राणायाम है
प्राणायाम के तीन अंग हैं:-
- पूरक
- रेचक
- कुंभक
पूरक:- नासिक छिदरो द्वारा श्वास को ग्रहण करना पूरक कहलाता है।
रेचक:- नासिका छिद्रों द्वारा श्वास को बाहर निकलना रेचक कहलाता है।
कुंभक:- स्वास्थ्य को भीतर एवं बाहर रोकने को कुंभक कहा जाता है कुंभ दो प्रकार के होते हैं बहिया कुंभक और आंतरिक कुंभक।
प्रत्याहार
प्रत्याहार अर्थात मन को विषयों से समेटने की क्षमता और इंद्रियों को वश में करने की योग्यता का विकास होता है।
मानसिक विकास के उच्च स्तर पर प्राणायाम के फल स्वरुप इंद्रियां अपने विषयों का संबंध त्याग कर चित्र के स्वरूप के अनुकरण जैसा प्रवाहित होना प्रत्याहार है अर्थात इंद्रियों पर या मन पर पूर्ण नियंत्रण प्रत्याहार कहलाता है।
इसके लिए अनिवार्य अभ्यास एवं वृद्ध संकल्प आदि की जरूरत होती है। प्रत्याहार स्व नियंत्रण की प्रक्रिया है।
जिसमें व्यक्ति अपनी इंद्रियों को उनके विषयों से पृथक रखता है। अर्थात इंद्रियों को अपने-अपने विषय शब्द रूप रस गंध स्पर्श आदि की ओर आकर्षण रोक कर जब इंद्रियां चित के अनुसार ही समाहित हो जाती है उसे ही प्रत्याहार कहते हैं।
योग अभ्यास से मां का इंद्रियों पर नियंत्रण होने लगता है क्योंकि मन ही इंद्रियों को चलाने वाला है। योग साधन तथा विद्यार्थी के लिए इंद्रियों पर नियंत्रण करना आवश्यक है।
अन्यथा इंद्रिय मन को इधर से उधर भटकती रहेगी और मां अपने लक्ष्य पर केंद्रित नहीं हो पाएगा।
लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रत्याहार की साधना आवश्यक है वस्तु है प्रत्याहार का अर्थ आत्म नियंत्रण या आत्म संयम से है।
धारणा
धारणा से अभिप्राय चित्त को किसी अभीष्ट विषय पर लगाने या जमाने से है।
किसी एक स्थान पर चित्त को बांधना धारणा है। धरना में चित्त किसी एक वस्तु पर केंद्रित हो जाता है।
इस अवस्था के प्राप्त होने के बाद साधक ज्ञान के योग्य हो जाता है। धारणा ध्यान की पूर्व स्थिति है।
ध्यान में एकाग्रता की प्रगति हो जाती है। धरना में मन को बार-बार लक्ष्य पर केंद्रित किया जाता है।
महर्षि पतंजलि के अनुसार किसी स्थूल या सूक्ष्म तथा बाहर या भीतर के किसी ध्येय स्थान में मन को बांधना या स्थिर करना धारणा कहलाती है।
विद्यार्थी के लिए धारणा और ज्ञान का बहुत महत्व है। लिखते पढ़ते समय मां अपनी चंचलता के कारण कितनी बार विषय से हटकर अन्य विचार एवं कल्पनाओं पर जाता है। बार-बार प्रयत्न करके उसे विषय पर लाते हैं। एकाग्रता के लिए किया गया यह पर्यटन ही धरना है पूर्ण हीरा धरना और अंतर दर्शन हमें स्वयं को देखने का अवसर देते हैं। अपने मन में उठने वाले विचारों को जागरुक होकर देखने का मौका देते हैं। तत्पश्चात विचारों की व्यर्यथा के बारे में सोचने लगते हैं। घृणा इशा क्रोध के विचारों को हम ध्यान में जागरूक होकर तोड़ पाए हैं। धीरे-धीरे चेतना का विकास होता है और स्मृति और एकाग्रता स्वत बढ़ जाती है।
ध्यान
महर्षि पतंजलि के अनुसार जहां चित्त लगाया जाए
इसी वृत्ति का लगातार चलना ध्यान है। ध्यान अवस्था में एकाग्रता की धारणा निर्देशित होती है और इस अवस्था में शरीर स्वस्थ इंद्रियां मन बुद्धि तथा अहंकार उसके ध्यान के विषय परमात्मा पूरक बनते हैं। योग तत्व उपनिषद में ईस्ट पर ध्यान करने को शगुन ध्यान कहा गया है जिसके द्वारा सिद्धि मात्र की प्राप्ति होती है।
समाधि
अष्टांग योग हमें सकारात्मक विचार प्रदान करता है एवं हमारे मस्तिष्क को तरोताजा रखता है।
अष्टांग योग हमारी एकाग्रता को बढ़ाने में सहायक है।
अष्टांग योग पूरे दिन की थकान एवं तनाव को समाप्त कर देता है एवं हमारे शरीर को तक की प्रदान करता है।
अष्टांग योग हमें अच्छा स्वास्थ्य प्रदान करता है। अष्टांग योग से हमें अच्छी नींद आती है।
अष्टांग योग करने से हमारा मस्तिष्क शांत रहता है। अष्टांग योग हमारे शरीर के लचीलेपन एवं सहनशक्ति को बढ़ाता है।
अष्टांग योग हमारे पाचन तंत्र को सुचारू रूप से संचालित करने में सहायता प्रदान करता है।
अष्टांग योग रक्त संचार को सामान्य बनाए रखने में सहायता प्रदान करता है।
अष्टांग योग बीमारियों से सुरक्षा प्रदान करता है। अष्टांग योग के माध्यम से शरीर के वजन को कम कर सकते हैं।
अष्टांग योग हमारे इंद्रिय नियंत्रण में भी सहायक होता है जिससे हमें अपने लक्ष्य की प्राप्ति में मदद मिलती है।
जब केवल लक्ष्य का अभ्यास रह जाए चित्त् वृत्ति का निज स्वरूप शून्य हो जाए तब वही ध्यान समाधि में परिवर्तित हो जाता है।
महर्षि पतंजलि के अनुसार ज्ञान की वह अवस्था जब केवल ध्येय की अनुभूति होने लगती है तथा सभी कुछ शून्य हो जाता है ध्यान करते समय ध्येय में पूर्ण रूपेण तन्मय हो जाता है वह स्थिति ही समाधि है।
बी एड नोट्स इन हिंदी Link-B.Ed First year syllabus & B.Ed-1st Year Nots
Q.1.अष्टांग योग के लाभ क्या है?
- अष्टांग योग हमें सकारात्मक विचार प्रदान करता है एवं हमारे मस्तिष्क को तरोताजा रखता है।
- अष्टांग योग हमारे लक्ष्य में एकाग्रता प्रदान करता है।
- अष्टांग योग हमें तनाव व थकान से मुक्त रखना है। अष्टांग योग हमें अच्छी नींद प्रदान करने में सहायक है।
- अष्टांग योग हमारे मस्तिष्क को शांत रखता है। अष्टांग योग के द्वारा हम हमारे वजन को कम कर सकते हैं।
- अष्टांग योग करने से हमारे शरीर में किसी प्रकार की बीमारी उत्पन्न नहीं होती।
- अष्टांग योग से हमारा रक्त संचार है सामान्य बना रहता है।
- अष्टांग योग से हमारा आध्यात्मिक ज्ञान में प्रगति होती है।
- अष्टांग योग हमारे शरीर को मजबूत बनाता है।
- अष्टांग योग हमारे पाचन तंत्र को सुचारू बनाए रखने में सहायता प्रदान करता है।
- अष्टांग योग शुगर जैसी बीमारियों को उत्पन्न नहीं होने देता।
- अष्टांग योग के द्वारा आत्मा का परमात्मा से मिलन संभव है।
- अष्टांग योग के द्वारा दैहिक दैविक भौतिक टेपों से छुटकारा मिल जाता है।
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