समग्र स्वास्थ्य के लिए योग(yoga for Holistic health)

 yoga for Holistic health

(समग्र स्वास्थ्य के लिए योग) 

                 Paper-3


मग्र स्वास्थ्य के लिए योग, अवधारणा, संप्रत्यय, योग के आध्यात्मिक आधार।B.Ed
 समग्र स्वास्थ्य के लिए योग, अवधारणा, संप्रत्यय, योग के आध्यात्मिक आधार।B.Ed



About

आज हम समग्र स्वास्थ्य के मूल सिद्धांत जैसे समग्र स्वास्थ्य की अवधारणा या संप्रत्यय समग्र स्वास्थ्य के लिए शिक्षा की आवश्यकता और विस्तार समग्र स्वास्थ्य के लिए शिक्षा का भारतीय और पश्चिमी संदर्भ समग्र स्वास्थ्य के विकास के आयाम योग के आध्यात्मिक आधार अलौकिक वास्तविका मूल घटक के रूप में पुरुष और प्रकृति का संप्रत्यय। अंतःकरण मन बुद्धि चित्त अहंकार की अवधारणा। योग शिक्षा के दर्शन आदि के बारे में आसान भाषा में समझेंगे।



स्वास्थ्य


एक अच्छा स्वास्थ्य स्वयं के लिए व्यक्ति के लिए उसके परिवार के लिए समाज के लिए राष्ट्र के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विश्व मानव रूप में सबके लिए अच्छा होता है। एक अच्छा स्वास्थ्य व्यक्ति की खुशी व परिवार की खुशी का आधार होता है और यही आगे चलकर समाज राष्ट्र को सुरक्षा प्रदान करता है। तभी ऐसा कहा जाता है कि स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में स्वस्थ मन का निवास करता है। केवल निरोगी होना ही अच्छे स्वास्थ्य की दशा नहीं कहा जा सकती अपितु शारीरिक मानसिक बौद्धिक सामाजिक रूप से संपन्न व्यक्ति ही स्वस्थ होता है।

 स्वास्थ्य का अर्थ


हमारा पूरा शरीर रक्त मांस पेसियों से बना हुआ है यह सब खाद्य पदार्थों से प्राप्त प्रोटीन का कार्बनोइहाइइ लवण जल इत्यादि द्वारा निर्मित होते हैं। शरीर संचालन हेतु विभिन्न घटक हैं यह सभी घटक ठीक प्रकार से कार्य करें तो स्वस्थ शरीर  आ जाएगा।


WHO के अनुसार स्वास्थ्य केवल रोग अथवा दुर्लभता की उपस्थिति को नहीं कहा जाता बल्कि संपूर्ण शारीरिक मानसिक व सामाजिक खुशहाली की स्थिति को अच्छा स्वास्थ्य कहा जाता है। 

समग्र स्वास्थ्य का संप्रत्यय



एक अच्छे स्वास्थ्य के बारे में जानना समग्र स्वास्थ्य का नाम है। स्वस्थ लोग रोजमर्रा की गतिविधियों से निपटने के लिए और किसी भी परिवेश के मुताबिक अपना अनुकूलन करने में सक्षम होते हैं।


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 समग्र स्वास्थ्य शिक्षा की आवश्यकता:- 


विद्यार्थियों को विभिन्न रोगों से ग्रसित न होने देने में सहायता  करना।


विद्यार्थियों के मानसिक शक्तियों के उपयुक्त विकास में सहायता करना।


विद्यार्थियों के विभिन्न मानसिक रोगों को दूर करने में सहायता करना।


विद्यार्थियों के इंद्रियों तथा मन पर उचित नियंत्रण में सहायक।

विद्यार्थियों को नैतिक व चारित्रिक रूप में संभल बनाने में सहायक।

विद्यार्थियों के आत्मिक तथा आध्यात्मिक ज्ञान में सहायक।

विद्यार्थियों के अच्छे संस्कार व माननीय मूल्यों को स्थापित करने में सहायक।

मन की बुराइयों जैसे  घृणा क्रोध छल कपट दूर करने में सहायक।

सांस्कृतिक विरासत को समझने सुरक्षित और वृद्धि में सहायक।

विद्यार्थियों के शारीरिक अंग की वर्दी में विकास का मार्ग प्रशस्त करने में सहायक।


समग्र स्वास्थ्य के लिए शिक्षा के क्षेत्र


शारीरिक स्वास्थ्य

शरीर की स्थिति को दर्शाता है अच्छे शारीरिक स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने के लिए तरीके हो सकते हैं जैसे 

संतुलित आहार की आदतें

 व गहरी नींद संतुलित शारीरिक गतिविधियां।

 नारी स्पंदन रक्तदाब शरीर का बहाव सहनशीलता व्यक्ति का आकार में सभी सामान्य मानकों के अनुसार होना चाहिए। 

शरीर के सभी अंग सामान्य रूप से कार्य कर रहे हो।


 योग की शारीरिक स्वास्थ्य को बनाए रखने की भूमिका


योग  नाडी की शक्ति में वृद्धि करके रक्त संचार और रक्त शुद्धि के कार्य में सहायता करता है।

योग हृदय गति को सामान्य बनाने व शरीर के तापमान को उपयुक्त बनाने में सहायक होता है।

योग शारीरिक थकावट को दूर करने व शरीर को निरोग करण बनाने में सहायक।

योग शरीर को लचीला और शक्तिशाली बनाने में सहायक।

योग शरीर की आंतरिक कमियों को ठीक करने से साफ करने में सहायक।

योग पाचन क्रियाओं को ठीक प्रकार से नियंत्रित करने में सहायक।

योग हमारे शरीर को दीर्घायु बनाने में सहायक।


1) मानसिक स्वास्थ्य



मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ हमारे भावनात्मक और आध्यात्मिक लचीलापन से है जो हमें निराशा है उदासी की स्थिति में सक्षम बनाती है मानसिक स्वास्थ्य को अच्छा बनाए रखने के लिए कुछ तरीके हो सकते हैं जो निम्न है

प्रसन्नत शांति व व्यवहार में प्रफुलता ।

आत्म संतुष्टि।

भीतर ही भीतर कोई भावनात्मक संघर्ष न हो।

मन की संतुलित अवस्था  ।

2) मानसिक स्वास्थ्य को बनाए रखने में   योग की भूमिका


चिंता तनाव आंतरिक द्वंद आदि को दूर करने में सहायक।

मस्तिष्क को स्वस्थ सहायक व पोस्ट बनाने में सहायक।

मानसिक शांति व स्वास्थ्य प्रदान करने में सहायक।

योग मानसिक अस्वस्थता को दूर कर उपचार में सहायक।

3)अध्यात्मिक स्वास्थ्य


अध्यात्मिक स्वास्थ्य हमारा अच्छा स्वास्थ्य आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ हुए बिना अधूरा है। जीवन के अर्थ और उद्देश्यों की तलाश करना आध्यात्मिक बनाता है। यह हमारे अस्तित्व की समझ के बारे में अपने अंदर गहराई से देखने का एक तरीका है। 

अध्यात्मिक स्वास्थ्य को बनाए रखने के तरीके  


समुचित ज्ञान की प्राप्ति।

भौतिक जगत की किसी भी वस्तु उससे मोह न रखना।

दूसरों के प्रभाव में आए बिना अपना आतम उत्थान करना।

अपने कर्म को उन्नत बनाना।

योग की भूमिका

योग सूक्ष्म शरीर के अस्तित्व के बोध कराने में सहायक है।

योग सभी प्राणियों को परमात्मा का अंश जानकर सभी से प्रेम व आदर भाव बनाने में सहायक है।

योग जीवन में भौतिक सुखों की अपेक्षा आध्यात्मिक सुख और शांति को अधिक महत्व देने में सहायक।

योग परमात्मा से मिलन और आत्मिक आनंद में सहायक।





                Unit- 2


पुरुष की अवधारणा या संप्रत्यय

पुरुष की अवधारणा-जगत की वास्तविकता के तत्व है-पुरुष या आत्मा

आत्मा का अस्तित्व निर्विवाद है। यह मेरा है यह मैं हूं ऐसा प्रत्येक व्यक्ति का अनुभव है 

और प्रत्येक व्यक्ति ऐसा ही बोलता है मैं मेरा एक सहज तथा स्वाभाविक अनुभव है।

 इसके लिए किसी भी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है।

 कोई भी व्यक्ति इस संसार में अपना अस्तित्व अस्वीकार नहीं कर सकता। क्योंकि अस्वीकार करने के लिए भी चेतन आत्मा की आवश्यकता है।


 इसलिए सांख्य दर्शन के अनुसार आत्मा या पुरुष का अस्तित्व स्वयं प्रकाशित अथवा स्वत सिद्ध है और उनकी सता का किसी भी प्रकार खंडन नहीं किया जा सकता।


प्रकृति और पुरुष मे अंतर 

पुरुष चेतना है जबकि प्रकृति अचेतन है। 

पुरुष सत्य रज तथा तम गुना से युक्त है जबकि प्रकृति तत्व रज तथा तम से अलंकृत है। इसलिए पुरुष को त्रिगुणातीत तथा प्रकृति को त्रिगुणमय कहा गया हैं।  

पुरुष सत्य है जबकि प्रकृति ज्ञान का विषय है।

 पुरुष निस कर्म है जबकि प्रकृति सक्रिय है। 

पुरुष अनेक हैं जबकि प्रकृति एक हैं 

पुरुष कार्य कारण से युक्त है जबकि प्रकृति कारण है। 

पुरुष अपरिवर्तनशील है जबकि प्रकृति परिवर्तनशील है। 

पुरुष विवेक की है जबकि प्रकृति ए विवेक की है।

 पुरुष ए परिणाममी नित्य है जबकि प्रकृति परिणामी नित्य है। 

जिस सप्ताह से अधिकतर भारतीय दार्शनिकों ने आत्मा का नाम दिया है उसको सांख्य दर्शन में पुरुष की संज्ञा दी गई है। इस प्रकार पुरुष और आत्मा एक ही तत्व के अलग-अलग नाम है।


पुरुष का आधार श्वेता सिद्ध हो जाता है उसे किसी भी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। तथा इसे खंडित करना असंभव है। पुरुष का अस्तित्व सारांश रहित है।


सांख्य दर्शन में पुरुष को शुद्ध रूप में चैतन्य पुरुष माना है। चैतन्य आत्मा में सदैव निवास करता है। आत्मा को सुसुप्त अवस्था या स्वान अवस्था या जागृत अवस्था में से किसी भी अवस्था में माना जाए इसमें चैतन्य वर्तमान रहता है। इसलिए चैतन्य को आत्मा का गुण नहीं उसका स्वभाव माना गया है। 

आत्मा स्वयं प्रकाशित है तथा जगत की अन्य वस्तुओं को भी प्रकाशित करती है। आत्मा शाश्वत है यह अनादि और अनंत है। शरीर का जन्म होता है और मृत्यु हुई परंतु आत्मा अविनाशी है यह निरंतर विद्यमान रहती है।


आत्मा कार्य तथा कारण से युक्त है। पुरुष को न किसी वस्तु का कारण कहा जा सकता है और नए कर्म। अतः कार्य कारण का तर्क पुरुष के साथ जोड़ा जाए तो यह अनुचित होता है

पुरुष काल तथा दीक में नहीं है  क्योंकि वह नित्य है। पुरुष सुख दुख से रहित है क्योंकि वह अनुराग और द्वेष से मुक्त है अनुराग सुख देने वाली और द्वेष दुख देने वाली इच्छा है।


आत्मा का स्वरूप

सांख्य दर्शन का मानना है की आत्मा या पुरुष  :-

पुरुष शरीर से विभिन्न है क्योंकि शरीर भौतिक   है। जबकि आत्मा नश्वर होती पदार्थ है उसका नया तो आधी है और ना ही अंत है।

पुरुष या आत्मा को ज्ञानेंद्रिय से भी अलग पाते हैं।

पुरुष या आत्मा मन भी नहीं है क्योंकि मन का स्वरूप ए चेतन है और आत्मा या पुरुष का स्वरूप चेतन सील है।

पुरुष या आत्मा बुद्धि से भी भिन्न है क्योंकि बुद्धि का स्वरूप भी ए चेतन है।

पुरुष या आत्मा अहंकार भी नहीं है क्योंकि अहंकार तो शरीर का ही एक विशेष रूप है जबकि आत्मा शरीर से भिन्न है।

पुरुष को प्रकृति भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि दोनों ही तत्व है तो मूल ही हैं परंतु स्वरूप भिन्न-भिन्न है। प्रकृति चेतन है तो पुरुष चेतनशील है।

पुरुष या आत्मा परिवर्तनशील है। प्रकृति के गुणों के कारण भले ही परिवर्तन पाया जाए परंतु पुरुष या आत्मा तो शुद्ध चेतना है इसलिए इसमें कोई विकार या रूपांतरण संभव नहीं है। यदि ऐसा हो तो शुद्ध ज्ञान या सभ्यता की स्थापना संभव सी हो जाएगी। पुरुष या आत्मा की शुद्ध स्वरूप है चेतना है अतः इसके संपर्क में आने वाले पदार्थ भी चेतना के प्रकाश से प्रकासील हो जाते हैं।

पुरुष इटमा का अस्तित्व है। उसे ना तो कारण कह सकते और ना ही कार्य क्योंकि उसका महत्व आदि और नए ही अंत है।

पुरुष और आत्मा का स्वरूप चेतन है इसलिए उसके प्रकाश में प्रकृति के अस्तित्व का पता चल सकता है। प्रकृति तथा पुरुष एक दूसरे के विपरीत होने के साथ-साथ एक दूसरे के सहायक और पूरक हैं।

आत्मा या पुरुष में परिवर्तन नहीं होता इसलिए इसमें गति नहीं है इस कारण पुरुष आत्मा को लोग निष्क्रिय कहते हैं। यह चुपचाप एक दर्शक की भांति निहारता रहता है यह स्थिर और गति रहित है।

पुरुष या आत्मा दुख सुख तथा उदासीनता तीनों भावों को अपने में नहीं रखता है क्योंकि यह तीनों भाव तो प्रकृति के तीन गुना की धरोहर हैं।

पुरुष या आत्मा की सूक्ष्मता से यह अर्थ कभी नहीं  निकालना चाहिए कि वह परमाणु की तरह जड़ पदार्थ है। पुरुष या आत्मा का स्वरूप शुद्ध चेतना जिसके निर्माण में परमाणु की आवश्यकता नहीं पड़ती है।

पुरुष पाप तथा पुण्य से रहित है पाप और पुण्य उसके गुण नहीं है क्योंकि वह निर्गुण है।

न्याय विशेषज्ञ ने आत्मा को स्वत चेतन कहा गया है। आत्मा में चेतना का संचार तब ही होता है जब आत्मा का संपर्क मन शरीर का इंद्रियों से होता है। आत्मा का चैतन्य आगंतुक लक्षण है। परंतु सांख्य दर्शन चैतन्य आत्मा को स्वरूप मानता है।



संख्या शंकर के आत्मा संबंधी विचार से सहमत नहीं है शंकर ने आत्मा को चैतन्य के साथ ही साथ आनंद में माना है। आत्मा सात प्लस चित प्लस आनंद सच्चिदानंद है।

सांख्य आत्मा को आनंदमय नहीं मानता है। आनंद और चेतन ने विरोध आत्मक गुण है एक ही वस्तु में आनंद और चैतन्य का निवास माना भ्रांति मुल्क है। इसके अतिरिक्त आनंद सत्व फल है। आत्मा तीनों गुण सतोगुण रजोगुण तमोगुण नहीं पाए जाते हैं इसलिए आनंद के क्षेत्र का निर्माण होगा। इस द्वीप से मुक्त करने हेतु संख्या ने आत्मा को आनंद में नहीं माना है।

संख्या और शंकर ने आत्मा या पुरुष संबंधी विचारों में दूसरा अंतर यह है बताया की शंकर ने आत्मा को एक माना है जबकि संख्या ने आत्मा को अनेक माना है। 



पुरुष या आत्मा के संबंध में अन्य दार्शनिकों के मत

भारतीय दल आत्मा के अस्तित्व को स्वीकारते हैं। परंतु सभी में स्वरूप को लेकर मतभेद हैं।

चावल भौतिकवाद या जड़ वाद का प्रवर्तक है अतः वहां पर पदार्थ  ही केवल वास्तविक माना जाता है इसी कारण चार्वाक दर्शन के अनुसार आत्मा शरीर से भिन्न नहीं है चालाक दर्शन जो भौतिक शरीर को ही आत्मा कहता है। वहां पर आत्मा का स्वरूप बिल्कुल भौतिक पाया जाता है। आत्मा के अनंत रूप का भी वहां खंडन पाया जाता है क्योंकि आत्मा शरीर के साथ रहने के कारण नाशवान है। बौद्ध दर्शन तथा इस दर्शन से प्रभावित कुछ भारतीय विद्वानों के अनुसार आत्मा विज्ञान का एक प्रवाह मात्र है। एक गतिशील अवस्था को ही आत्मा कहा गया है।


मीमांसा दर्शन के अनुसार अज्ञानता के कारण ही मनुष्य किसी विषय का पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाता है।


मीमांसा दर्शन के अनुसार आत्मा संभवत एक चेतन पदार्थ जिसके ऊपर अज्ञानता की छाया पड़ती है। अज्ञानता के दूर होते ही आत्मा को चेतन रूप प्राप्त हो जाता है।

अद्वैतवाद के अनुसार

आत्मा सच्चिदानंद है। अर्थात इसके सत्य चित्र और आनंद ₹3 स्वरूप होते हैं इसलिए अद्वैत वीडियो के अनुसार आत्मा केवल शुद्ध चेतना नहीं है। इस सत्य तथा आनंद भी रहते हैं। इसलिए अद्वैतवाद के अनुसार आत्मा का स्वरूप अधिक रंगीन और प्रभावशाली होता है।


प्रकृति

प्रकृति शब्द का मूल अर्थ है  रचना अथवा किसी अन्य शक्तियां सप्ताह के द्वारा की गलत विशिष्ट रचना से है।

प्रकृति और पुरुष इस गुण में जगत के दो प्रकृति तत्व हैं। प्रकृति को माया भी कहते हैं। कुछ आचार्य प्रकृति और पुरुष में योग्यता संबंध मानते हैं। कुछ का कहना है कि वास्तव में प्रकृति पुरुष की शक्ति है जबकि कुछ दोनों को अभिन्न बताते हैं वस्तुत प्रकृति का क्षेत्र अत्यंत विशाल है। वह दृश्य में वह अदृश्य में दोनों जगत को समेटे हुए हैं। उसमें अंत प्रकृति जैसे मानचित्र बुद्धि अहंकार और भाई यह प्रकृति तथा उक्त दोनों के योग से विरचित समस्त विश्व  परपंच समाहित है।

ऐसे विशाल क्षेत्र वाली प्रकृति की परिधि में गोचर ओम अगोचर ब्रह्मांड के समस्त उपादान आ जाते हैं।

प्रकृति शब्द दो शब्दों के मेल से बना है- प्र +कृति

प्र का अर्थ है पूर्व तथा कृति का अर्थ है क्रिया या रचना अर्थात जो सृष्टि की रचना के पूर्व विद्यमान था उसे प्रकृति कहा जाता है।


वास्तव में तीनों गुणों सत्व रज और तम की सामने अवस्था का नाम प्रकृति है। इन तीनों कोणों का मिलन ही संसार रचना का कारण है और इस प्रकार प्रकृति संसार रचना का स्रोत व कारण के रूप में सामने आती है।

यह सत्य है कि प्रकृति हमें हमारे दृष्टि पत्र में आते हैं इस प्रकार प्रकृति अपने सभी रूपों में ए व्याप्त सूक्ष्म वह रहस्यमय है यह सास्वत है जबकि जगत मिथ्या है। वैचारिक दृष्टि से ऐसी सभी बातें जिन का अनुमान लगाया जा सके जिनका आदि व अंत न हो प्रकृति  कहलाती है। 


प्रकृति तथा पुरुष में संबंध या अंतर


यद्यपि प्रकृति तथा पुरुष के संपर्क से ही सृष्टि का निर्माण होता है दोनों में निकट का संबंध है परंतु फिर भी कुछ अंतर है जो निम्न प्रकार हैं।


प्रकृति जड़ है। जबकि  पुरुष चेतन है।

प्रकृति त्रिगुणात्मक है जबकि पुरुष निर्गुण है।

प्रकृति एक है जबकि पुरुष अनेक है।

प्रकृति देवकाल से युक्त है। जब की पुरुष देश काल से युक्त है।

प्रकृति विषय है  जबकि पुरुष विषय को बोलने वाला है 

प्रकृति भोगया है। जबकि पुरुष बोगी है।

प्रकृति की क्रियाशील व संक्रमण सील है। जबकि पुरुष अकरता  है

प्रकृति ज्ञान शून्य है जबकि पुरुष प्रधान का स्वरूप है 

प्रकृति बंधन का कारण है। जबकि पुरुष मुक्त है।


प्रकृति जगत का कारण है। जबकि पुरुष कार्य कारण श्रृंखला से रहित है।


क्योंकि प्रकृति सत्व रज तथा तम तीनों गुना की साम्यावस्था है। अतः जगत का प्रत्येक पदार्थ त्रिगुणात्मक होने से हर समय किसी न किसी गुणों से प्रभावित होता है योग आचार्य ने उनके तीन प्रकार बताए

सतोगुण 

रजोगुण 

और तमोगुण



Unit- 3

अष्टांग योग


महर्षि पतंजलि का योग दर्शन व्यक्तित्व विकास की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इन्होंने मानव के व्यक्तित्व विकास के लिए अपने योग दर्शन में विभिन्न सूत्रों द्वारा विशुद्ध रूप से दिशा निर्देश दिया है। बुद्धि बल स्वास्थ्य तथा मानसिक शक्तियों के विकास के लिए पतंजलि का योग दर्शन अष्ट चक्र की बात करता है जिसका विभिन्न शिक्षण विधियां के अनुप्रयोग के माध्यम से अभ्यास करके व्यक्तित्व को परिपक्व एवं उन्नति सेल बनाया जा सकता है। साधना की दृष्टि से अष्टांग योग एक क्रमबद्ध प्रमाणिक मार्ग है।


पतंजलि के अनुसार योग के आठ अंग हैं। योग की पूर्ण साधना के लिए इन आठ अंगों का कम से अभ्यास आवश्यक है।

इन अष्टांगों में प्रथम दो यह यम नियम मुख्यतः आचार संबंधी अभ्यास हैं।

इसके पक्ष के दो अंग आसन प्राणायाम शरीर को भौतिक रूप से योग अभ्यास के योग्य बनाने के लिए उपयुक्त हैं।

पांचवा प्रत्याहार मुख्यतः इंद्रिय निग्रह का उपाय है और इसके पक्ष की प्रक्रियाएं धारणा ध्यान व समाधि आदि पूर्ण रूप से मानसिक तथा आध्यात्मिक साधनाएं हैं।

पतंजलि ने  यम नियम आसन प्राणायाम प्रत्याहार को बही रंग योग कहा है।

तथा धरना ध्यान समाधि को अतरंग योग कहा है।

चित्र की शुद्धता और पवित्रता के महत्व को बनाए रखने के लिए योग दर्शन में योग क्रिया के लिए आठ प्रकार के साधन बताए हैं:- यह अष्टांग मार्ग इस प्रकार हैं


  • यम 
  • नियम 
  • आसन
  • प्राणायाम
  • प्रत्याहार 
  • धारणा
  • ध्यान
  • समाधि

महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग का आधार यम और नियम को मानते हुए इन्हें प्रारंभ में रखा है।

यद्यपि इनका पालन सभी के लिए श्रेष्ठ है लेकिन एक आदर्श विद्यार्थी और योगी के लिए अति आवश्यक है क्योंकि इसके बिना ज्ञान अर्जन की क्रिया सीखने की प्रक्रिया व व्यक्ति विकास की प्रक्रिया पूरी नहीं होती है।

एक आदर्श विद्यार्थी का जीवन भी एक योगी का ही जीवन है। उसे भी अपने लक्ष्य को पाने के लिए आत्म अनुशासन और साधन के इस मार्ग से गुजरना पड़ता है जिस मार्ग से एक योगी गुजरता है।


  1. यम

यह योग का पहला अंग या मार्ग है। इंद्रियों के संयम की क्रिया को यह कहा जाता है।
यम वे सिद्धांत या गुण है जिनका सामाजिक महत्व है। इनका विकास विद्यार्थी जीवन से ही करना चाहिए क्योंकि इन गुना के पालन से विद्यार्थी के लक्ष्य प्राप्ति में सहायता मिलती है। 

यह के पांच प्रकार हैं जो निम्न

  1. अहिंसा 
  2. सत्य 
  3. असते 
  4. ब्रह्मचर्य 
  5. अपरिग्रह


अहिंसा

अहिंसा का अर्थ है किसी भी प्राणी को मां वाणी और कम से कष्ट न देना।

सत्य

इसका अभिप्राय मन वचन तथा कर्म से सत्य का दृढ़ता पूर्वक पालन करना है। सत्य का पालन सभी के लिए श्रेष्ठ है क्योंकि सामाजिक दृष्टि से भी आपसी विश्वास सत्य पर ही आधारित है और विश्वास के आधार पर ही समाज एवं विश्व के कार्य पूरे होते हैं।



अस्तेय:- चोरी न करना

चोरी अथवा छिपाव का अभाव अस्थाई है गीता में उल्लेखित है।


ब्रह्मचर्य

जो ब्रह्म का आचरण करता है। अर्थात मन सहित इंद्रियों का ब्रह्म आचरण में प्रवाहित होना ब्रह्मचर्य है। सब प्रकार के विषयों का चिंतन मिट जाना ब्रह्मचर्य है। जब ब्रह्मचर्य व्रत की दृढ़ की अवस्था आ जाती है तो समर्थ विजय शौर्य और पराक्रम का लाभ हो जाता है।


अपरिग्रह

सामाजिक संदर्भ में आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का स्वार्थ की दृष्टि से संग्रह नए करना अपरिग्रह कहा जाता है। महात्मा बुद्ध ने भी ऐसा ही उपदेश दिया था।

नियम

नियम पांच होते हैं।  

  1. शौच 
  2. संतोष 
  3. तप 
  4. स्वाध्याय 
  5. एवं ईश्वर प्रणिधान

इमो के सम्मान नियमों का पालन करना भी आवश्यक है नियम का अर्थ है सदाचार को आश्रय  देना है




शौच
सोच से अभिप्राय भैया और आंतरिक अर्थात शरीर और चित् की शुद्धि से होता है। इससे अंतःकरण की शुद्ध मन में प्रसन्नता चित्त की एकाग्रता इंद्रियों का वश में होना और आत्म साक्षात्कार की योग्यता विकसित हो जाती है। शारीरिक शुद्धि बाह्य ही नहीं बल्कि आंतरिक शुद्धता भी आवश्यक है।


संतोष
संतोष का अर्थ है जो सम है जिसमें विषमता नहीं है वह एक परम तत्व परमात्मा है। उसे तोष या तृप्ति प्राप्त होना संतोष है।


तप


ईस्ट के अनुरूप मन  सहित इंद्रियों को तपन ही तप हैं। तब से अभिप्राय सर्दी गर्मी भूख प्यास सुख-दुख आदि द्वंदों को सहन करने से होता है। इस अवस्था को प्राप्त कर लेने पर मन और इंद्रियों पर नियंत्रण हो जाता है।



स्वाध्याय



सेम का अध्ययन स्वाध्याय है। स्वयं का अध्ययन करते हुए आत्म मूल्यांकन द्वारा अपनी कमियों को दूर करते हुए आत्म विकास की प्रक्रिया में आगे बढ़ना ही स्वाध्याय है।

ईश्वर प्रणिधान

ईश्वर प्राणी धाम से तात्पर्य ईश्वर का ध्यान एवं स्मरण से होता है। परम सत्ता के प्रति श्रद्धा रखकर समर्पित रहना ही इस पर प्राणीधान है।



आसन


आसान से महर्षि का आशय स्थिर बैठने से है:-        

       "स्थिरसुखमआसनम"


स्थिर सुख पूर्वक बैठने का नाम आसान है। आसान द्वारा शरीर स्वस्थ होता है तथा साथ ही मन भी स्थिर होता है।



आसान को मुख्य रूप से तीन भागों में बांटा जा सकता है:-


  1. ध्यान आसन 
  2. विश्रांति कर आसान 
  3. संवर्धन आत्मक आसान


प्राणायाम


योग का चौथा अंग प्राणायाम है।


सांस वायु के नियंत्रण से चित में स्थिरता का उदय होता है। यह साधना का एक  स्तर है। इसका नाम प्राणायाम है। दूसरे शब्दों में आसनों के द्वारा शरीर को सक्षम बनाने के पश्चात प्राणायाम के द्वारा सांस का गति नियमन विस्तार और अनुशासित करना ही प्राणायाम है 

प्राणायाम के तीन अंग हैं:-

  1. पूरक 
  2. रेचक 
  3. कुंभक

पूरक:- नासिक छिदरो द्वारा श्वास को ग्रहण करना पूरक कहलाता है।

रेचक:- नासिका छिद्रों द्वारा श्वास को बाहर निकलना रेचक कहलाता है।


कुंभक:- स्वास्थ्य को भीतर एवं बाहर रोकने को कुंभक कहा जाता है कुंभ दो प्रकार के होते हैं  बहिया कुंभक और आंतरिक कुंभक।




प्रत्याहार


प्रत्याहार अर्थात मन को विषयों से समेटने की क्षमता और इंद्रियों को वश में करने की योग्यता का विकास होता है।

मानसिक विकास के उच्च स्तर पर प्राणायाम के फल स्वरुप इंद्रियां अपने विषयों का संबंध त्याग कर चित्र के स्वरूप के अनुकरण जैसा प्रवाहित होना प्रत्याहार है अर्थात इंद्रियों पर या मन पर पूर्ण नियंत्रण प्रत्याहार कहलाता है।


धारणा

धारणा से अभिप्राय चित्त को किसी अभीष्ट विषय पर लगाने या जमाने से है।

किसी एक स्थान पर चित्र को बांधना धारणा है। धरना में चित्र किसी एक वस्तु पर केंद्रित हो जाता है। इस अवस्था के प्राप्त होने के बाद साधक ज्ञान के योग्य हो जाता है। धारणा ध्यान की पूर्व स्थिति है। ध्यान में एकाग्रता की प्रगति हो जाती है। धरना में मन को बार-बार लक्ष्य पर केंद्रित किया जाता है।

महर्षि पतंजलि के अनुसार किसी स्थूल या सूक्ष्म तथा बाहर या भीतर के किसी ध्येय स्थान में मन को बांधना या स्थिर करना धारणा कहलाती है।



ध्यान

महर्षि पतंजलि के अनुसार जहां चित्त लगाया जाए
इसी वृत्ति का लगातार चलना ध्यान है। ध्यान अवस्था में एकाग्रता की धारणा निर्देशित होती है और इस अवस्था में शरीर स्वस्थ इंद्रियां मन बुद्धि तथा अहंकार उसके ध्यान के विषय परमात्मा पूरक बनते हैं। योग तत्व उपनिषद में ईस्ट पर ध्यान करने को शगुन ध्यान कहा गया है जिसके द्वारा सिद्धि मात्र की प्राप्ति होती है।


समाधि


जब केवल लक्ष्य का अभ्यास रह जाए चित्त् वृत्ति का निज स्वरूप शून्य हो जाए तब वही ध्यान समाधि में परिवर्तित हो जाता है।

महर्षि पतंजलि के अनुसार ज्ञान की वह अवस्था जब केवल ध्येय की अनुभूति होने लगती है तथा सभी कुछ शून्य हो जाता है ध्यान करते समय ध्येय में पूर्ण रूपेण तन्मय हो जाता है वह स्थिति ही समाधि है।

Unit- 4


प्राणायाम

प्राणायाम का अर्थ है वह क्रिया जिसके द्वारा प्राण अर्थात जीवनी शक्ति का विस्तार किया जाए अथवा उन पर काबू बढ़ाया जाए।

श्वास को बाहर निकलना पुणे अंदर ले जाना और अंदर ही रोक करके पुणे कुछ समय बाद बाहर निकलना यह तीन क्रियाएं प्राणायाम की आधारभूत क्रियाएं हैं।

श्वास को बाहर निकालने की क्रिया को रेचक कहते हैं। श्वास जब अंदर खिंचा जाता है तो इस क्रिया को पूरक कहते हैं। श्वास भीतर लेने के बाद वहीं पर रोक देने की क्रिया को कुंभक कहते हैं।


कुंभ की एक स्थिति और भी है जब श्वास को बाहर निकाल करके उसे बाहर ही रोक दिया जाता है तो यह बाह्य कुंभक कहलाता है।

प्राणायाम से स्मरण शक्ति बढ़ती है दिमाग की बीमारियां खत्म होती है। नदियां शुद्ध होती है और स्नायु मंडल मजबूत बनता है।

 मन की चंचलता दूर होती है। इंद्रिय काबू में रहती है। जिस प्रकार आग में डालने पर सोने चांदी आदि धातुओं का मेल खत्म हो जाता है इस पर तरह प्राणायाम से मां और बुद्धि के मेल नष्ट हो जाते हैं तथा व्यक्ति की आत्मा बलवान बनती है। 

उसके खराब संस्कार खत्म और अच्छे संस्कार मजबूत होते हैं। प्राणायाम से शरीर के अंग विशेष रूप से पाचन अंग ठीक तरह काम करने लगते हैं। अमावस्या गुर्दा लीवर छोटी और बड़ी आंत  इन सबको लाभ पहुंचता है।




मनुष्य के सारे शरीर में प्राण व्याप्त हैं स्थान भेद के अनुसार इसे पांच अलग-अलग नाम से जाना जाता है:-


  1. प्राण 
  2. अपान 
  3. समान 
  4. उदान 
  5. व्यान

प्राणायाम का उद्देश्य एड तथा पिंगला नाडी में ठीक संतुलन स्थापित करके सुषमा के माध्यम से आवश्यक प्रकाश तथा ज्ञान प्राप्त करना है।

प्राणायाम के प्रकार


  1. भस्त्रिका प्राणायाम। 
  2. उज्जाई प्राणायाम। 
  3. भ्रामरी प्राणायाम।  
  4. शीतकरी प्राणायाम। 
  5. शीतली प्राणायाम। 








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