"पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धांत "(Principles of Curriculum development)
पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धांत (PathyKram Nirman Ke Siddhant) मैं यह बताया जाता है कि विद्यार्थी को शिक्षा ग्रहण के साथ-साथ अपने राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति के विषय पर भी विशेष रूप से ध्यान दिया जाना चाहिए जिससे कि वह आगे चलकर समाज और देश के लिए उपयोगी सिद्ध हो सके।
पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धांतों का आधार सामाजिक नैतिक मूल्य वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक दार्शनिक एवं शिक्षाविदों के विचारों तथा अनुभव के आधार पर सिद्धांतों को बनाया जाता है जो निम्नलिखित हैं:-
- बाल केंद्रित सिद्धांत।
- जनतंत्र भावना के विकास का सिद्धांत।
- सह संबंध का सिद्धांत।
- रचनात्मक तथा सृजनात्मकता का सिद्धांत।
- जीवन से संबंधित होने का सिद्धांत।
- खेल और कार्य की क्रियो के अंतर का सिद्धांत।
- संस्कृति तथा सभ्यता का सिद्धांत।
- स्वस्थ आचरण के आदर्शों की प्राप्ति का सिद्धांत।
- उपयोगिता का सिद्धांत।
- अगर दर्शित का सिद्धांत।
- विविधता तथा लचीलेपन का सिद्धांत।
- अवकाश के लिए प्रशिक्षण का सिद्धांत।
- जीवन संबंधी समस्त क्रियो का समावेश का सिद्धांत।
- सामुदायिक जीवन से संबंधित होने का सिद्धांत
- अनुभव की पूर्णता का सिद्धांत
- सतत विकास की प्रक्रिया का सिद्धांत।
पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धांत में यह ध्यान रखा जाता है कि ठीक प्रकार से तैयार किया गया पाठ्यक्रम विशेष उद्देश्य की प्राप्ति में सहायता करता है। इस संबंध में माध्यमिक शिक्षा आयोग या मोडालियेर आयोग 1952-53 के अनुसार उत्तम आधुनिक शैक्षिक विचार के अनुसार पाठ्यक्रम का अर्थ केवल विद्यालय में पढ़ाई जाने वाले पास पारंपरिक शैक्षिक विषय से नहीं परंतु यह उन सभी अनुभव को अपने में सम्मिलित करता है जो कि विद्यालय कक्षा पुस्तकालय प्रयोगशाला कार्यशाला खेल के मैदान तथा शिक्षक विद्यार्थियों के बीच विविध अनौपचारिक संबंध के बीच होता है।
इस अर्थ में विद्यालय का संपूर्ण जीवन ही पाठ्यक्रम बन जाता है। जो की सभी बिंदुओं पर विद्यार्थियों की जीवन को स्पष्ट कर सकता है तथा संतुलित व्यक्तित्व के विकास करने में सहायता करता है।
1.बाल केंद्रित सिद्धांत
पाठ्यक्रम बाल केंद्रित होना चाहिए। दूसरे शब्दों में पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय बालकों की रुचि क्षमताओं योग्यताओं तथा बुद्धि एवं आयु का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
2.जनतंत्र भावना के विकास का सिद्धांत
भारत ने जनतंत्र के सिद्धांत को स्वीकार किया है। इस दृष्टि से पाठ्यक्रम में ऐसी क्रियो को स्थान मिलना चाहिए जिनके द्वारा बालको में जनतंत्र में भावना एवं दृष्टिकोण का विकास हो सके।
3.सह-संबंध का सिद्धांत
पाठ्यक्रम को अलग-अलग भागों में संबंध हैं भागों में विभाजित करने से उसका महत्व कम हो जाता है। इसके विपरीत पाठ्यक्रम के विषय में सह संबंध स्थापित करने से बालकों के ज्ञान में समग्र रूप से परिचय हो जाता है अतः इस बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि पाठ्यक्रम के अंतर्गत सम्मिलित किए गए विषय पृथक पृथक न हो अपितु उनके एक दूसरे से सह-संबंध हो
4.रचनात्मक तथा सृजनात्मक का सिद्धांत
पाठ्यक्रम में उन क्रियाओं तथा विषयो को स्थान मिलना चाहिए जो बालक की रचनात्मक तथा संरचनात्मक शक्तियों का विकास कर सके।
रेमांट के अनुसार :- जो पाठ्यक्रम भविष्य की आवश्यकताओं के लिए उपयुक्त हैं। उनमें निश्चित रूप से रचनात्मक विषयों के प्रति निश्चित सुझाव होने चाहिए।
5.जीवन से संबंधित होने का सिद्धांत
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पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय उन्हें विषयों पर ध्यान देना चाहिए जिनका बालक के जीवन से सीधा संबंध हो। पुराने पाठ्यक्रम की आलोचना इसलिए हो रही है क्योंकि इसका बालकों के जीवन से कोई संबंध नहीं है।
6.खेल और कार्य की क्रियाओं के अंतर का सिद्धांत
पाठ्यक्रम तैयार करते समय ज्ञान प्राप्त करने की क्रियो को इतना रुचिकर बनाना चाहिए कि बालक ज्ञान को खेल समझाकर प्रभावशाली ढंग से ग्रहण कर सके।
क्रो एंड करो के अनुसार :-
जो लोग सीखने की प्रक्रिया को निर्धारित करते हैं। उनका उद्देश्य यह है होना चाहिए कि वह ज्ञानात्मक क्रियो की ऐसी योजना बनाएं जिसमें खेल की दृष्टिकोण को स्थान प्राप्त हो।
7.संस्कृति तथा सभ्यता का सिद्धांत
पाठ्यक्रम के अंतर्गत उन क्रियो वस्तुओं तथा विषयों को सम्मिलित किया जाना चाहिए जिनके द्वारा बालक को अपनी संस्कृति तथा सभ्यता का ज्ञान हो जाए। दूसरे शब्दों में पाठ्यक्रम संस्कृति तथा सभ्यता की रक्षा करता है।
8.अनुभव की पूर्णता का सिद्धांत:-
पाठ्यक्रम के अंतर्गत मानव जाति के अनुभव की संपूर्णता निहित होनी चाहिए दूसरे शब्दों में पाठ्यक्रम के अंतर्गत सैद्धांतिक विषयों के साथ-साथ मानव जाति के उन सभी अनुभवों को उचित स्थान मिलना चाहिए। जिन्हें बालक विद्यालय में खेल के मैदान में तथा कक्षा में पुस्तकालय में प्रयोगशाला में तथा शिक्षकों के द्वारा तथा अनौपचारिक शिक्षा से सीखना है।
9.स्वस्थ आचरण के आदर्शो की प्राप्ति का सिद्धांत:
पाठ्यक्रम में उन क्रियो विषयों तथा वस्तुओं को स्थान मिलना चाहिए जिनके द्वारा दूसरों के साथ है प्रशंसनीय व्यवहार करना बालक सीख जाए।
करो और करो के अनुसार:- पाठ्यक्रम का निर्माण इस प्रकार किया जाना चाहिए कि जिससे वह बालकों के उत्तम आचरण के आदर्शों की प्राप्ति में सहायता कर सके।
10.उपयोगिता का सिद्धांत:-
पाठ्यक्रम के अंतर्गत उन क्रियो और विषयों को स्थान मिलना चाहिए जो विद्यार्थी के भावी जीवन तथा वर्तमान जीवन के लिए उपयोगी हो। दूसरे शब्दों में जो क्रियाएं और विषय बालक के वर्तमान में भावी जीवन के लिए उपयोगी नहीं हो उसे सम्मिलित नहीं किया जाना चाहिए।
11.अग्रदर्शितं का सिद्धांत
पाठ्यक्रम के अंतर्गत उन क्रियो और विषयों को स्थान मिलना चाहिए जो बालक के भावी जीवन में आने वाली बाहरी परिस्थितियों का ज्ञान कर सके। तथा वह उनके साथ है तथा वह उनके साथ अनुकूलन कर लें। दूसरे शब्दों में सीखा हुआ ज्ञान ऐसा होना चाहिए जो बालक को अनुकूलन तथा आवश्यकता पड़ने पर बालकों को परिस्थितियों में पढ़ने योग्य बना सके।
12.विविधता तथा लचीलेपन का सिद्धांत
प्रत्येक बालक की क्षमताएं,आवश्यकताएं,रुचिया, मनोविकार एक दूसरे से भिन्न होती हैं। इस विभिन्नता को दृष्टिगत रखते हुए पाठ्यक्रम में विविधता तथा लचीलापन होना चाहिए।
13.अवकाश के लिए प्रशिक्षण का सिद्धांत
वर्तमान समय में अवकाश का सदुपयोग करना एक महान समस्या है। इस दृष्टि से पाठ्यक्रम इतना व्यापक होना चाहिए कि जहां एक और वह बालक को काम करने की प्रेरणा दे सके। वहीं दूसरी ओर वह उसमें ऐसी क्षमताएं भी उत्पन्न कर सके कि वह अपने अवकाश के समय का सदुपयोग करना सीख जाए ।
14.जीवन संबंधी समस्त क्रियो का समावेश का सिद्धांत
स्पेंसर के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य जीवन को पूर्णता प्रदान करना है अतः पाठ्यक्रम में जीवन से संबंधित उन सभी क्रियो को स्थान मिलना चाहिए जिसे बालक का शारीरिक मानसिक सामाजिक राजनीतिक तथा नैतिक सभी प्रकार का समुचित विकास हो जाए।
15.सामुदायिक जीवन से संबंध का सिद्धांत
पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय स्थानीय आवश्यकताओं तथा समस्याओं को ध्यान में रखते हुए उन सभी सामाजिक प्रथाओं मान्यताओं तथा समस्याओं को स्थान मिलना चाहिए जिसे बालक सामुदायिक जीवन की मुख्य मुख्य बातों से परिचित हो जाए। इस प्रकार माध्यमिक शिक्षा आयोग 1952 के अनुसार पाठ्यक्रम सामुदायिक जीवन से संजीव तथा आंगिक रूप से संबंधित होना चाहिए।
16.सतत विकास की प्रक्रिया का सिद्धांत
पाठ्यक्रम का निर्माण किस प्रकार करना चाहिए कि बालक के शारीरिक और मानसिक विकास तो हो ही और उसके साथ ही उसका सर्वांगीण विकास भी हो।
पाठ्यक्रम निर्माण की रूपरेखा:-
किसी भी कक्षा या विषय का पाठ्यक्रम तैयार करने की रूपरेखा सिर्फ वैसे जानकारों की टीम से तैयार करवानी चाहिए जो पहले से उसे विषय में निपुण हो। पाठ्यक्रम निर्माण का ब्लूप्रिंट तैयार करने में बालक, शिक्षक और पाठ्यचर्या का विशेष ध्यान रखना चाहिए क्योंकि तभी अधिगम (सीखना )का उद्देश्य पूरा हो सकता है।
पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धांतों का उद्देश्य
पाठ्यक्रम निर्माण का मुख्य उद्देश्य विद्यार्थियों के शारीरिक मानसिक सामाजिक सांस्कृतिक नैतिक और बौद्धिक सर्वांगीण विकास पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। जिससे कि विद्यार्थी सही से विकास कर सके और आगे चलकर भविष्य में समाज व राष्ट्र के लिए उपयोगी सिद्ध हो सके।
पाठ्यक्रम निर्माण में अध्यापक की भूमिका
पुरानी शिक्षा नीति में पाठ्यक्रम निर्माण में शिक्षक की भूमिका ने के बराबर रही है। बड़ी-बड़ी शिक्षक की कंपनियां या एजेंटीयों के द्वारा पाठ्यक्रम का निर्माण हुआ है। लेकिन अध्यापक की सक्रिय भूमिका होनी चाहिए क्योंकि पाठ्यक्रम से अध्यापक को ही विषय वस्तु या किताबों से ज्ञान छात्रों को देना होता है।
पाठ्यक्रम निर्माण का निष्कर्ष
पाठ्यक्रम निर्माण से यह निष्कर्ष निकलता है कि विद्यार्थियों को शिक्षा के साथ-साथ है अपने समुदाय संस्कृति विविधता एवं समाज में भी रहना चाहिए। जिससे विद्यार्थियों के अंदर नैतिक मूल्यों का विकास या सेवा भाव प्रकट हो सके। और विद्यार्थी अपनी सभ्यता और वसुदेव कुटुंबकम की और अग्रसर हो सके जिससे अपने देश और विश्व का विकास एवं कल्याण हो सके।
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