बाल्यावस्था की वृद्धि एवं अधिगम
( childhood growing up and learning)
Paper-1
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| शिक्षा मनोविज्ञान |
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आज हम शिक्षा, उत्पत्ति परिभाषा शिक्षा मनोविज्ञान शिक्षा मनोविज्ञान का क्षेत्र अभिवृद्धि एवं विकास की अवधारणा शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र शिक्षा मनोविज्ञान का महत्व निरंतरता का सिद्धांत विकास और अधिगम अनुवांशिकता आदि के बारे में सरल शब्दों में समझेंगे।
शिक्षा मनोविज्ञान
( Education psychology )
शिक्षा
शिक्षा के लिए प्रयुक्त अंग्रेजी शब्द एजुकेशन की उत्पत्ति लेटिन भाषा के 3 शब्दों से मानी गई है
1) Educatom का अर्थ है शिक्षण की क्रिया
2) Educare का अर्थ है शिक्षा देना या ऊपर उठाना।
3) Edushare का अर्थ है आगे बढ़ाना।
शिक्षा शब्द संस्कृत के शिक्षा धातु से बना है जिसका अर्थ है सीखना।
महात्मा गांधी के अनुसार बालक के मन आत्मा बुद्धि और मस्तिष्क का सर्वांगीण विकास ही शिक्षा है।
स्वामी विवेकानंद के अनुसार:- शिक्षा बालक में प्रतिभा निखारने का कार्य करती है। शिक्षा एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है जिसके माध्यम से मनुष्य जीवन पर्यंत कुछ न कुछ सीखता ही रहता है।
शिक्षा के प्रकार
शिक्षा के तीन प्रकार होते हैं जो निम्न है
औपचारिक शिक्षा या फॉर्मल एजुकेशन:-
निर्धारित पाठ्यक्रम पर आधारित।
अनौपचारिक किया इनफॉरमल एजुकेशन:-
पाठ्यक्रम निर्धारित नहीं होता है।
निरौपचारिक शिक्षा या फॉर्मल एंड इनफॉरमल एजुकेशन :-
शिक्षा के बीच की कड़ी या दूरस्थ शिक्षा।
मनोविज्ञान या साइकोलॉजि
आत्मा का विज्ञान शुरू में।
फिर मस्तिष्क का विज्ञान।
फिर चेतना का विज्ञान।
RS वुडवर्थ
सर्वप्रथम मनोविज्ञान ने आत्मा को छोड़ा फिर मस्तिष्क को त्यागा फिर चेतना को खोया अब वह व्यवहार का विज्ञान है।
वाटसन के अनुसार
मनोविज्ञान व्यवहार का शुद्ध विज्ञान है।
मन के अनुसार
मनोविज्ञान अनुभव के आधार पर किए गए अनुभव तथा व्यवहार का विधायक विज्ञान है।
जेम्स ड्रेवर के अनुसार
मनोविज्ञान में विधायक विज्ञान है जो मानव तथा पशु के व्यवहार का अध्ययन करता है जो उसके आंतरिक मनोभावों तथा विचारों की अभिव्यक्ति करता है।
शिक्षा मनोविज्ञान याeducation psychology
कॉलस्नीक के अनुसार
मनोविज्ञान के अनुसंधान तथा सिद्धांतों का शिक्षा के क्षेत्र में प्रयोग ही शिक्षा विज्ञान है।
स्किनर के अनुसार
शिक्षा मनोविज्ञान शिक्षा में अनुसंधान ओं का प्रयोग है जो मानव तथा प्राणियों के अनुभव तथा व्यवहार से संबंधित है।
CH जुड़ के अनुसार
जन्म से लेकर परिपक्वता से लेकर विकास क्रम प्राणी के व्यवहार में जो परिवर्तन आते हैं उनकी व्याख्या तथा विवेचना करने वाले विज्ञान को शिक्षा मनोविज्ञान कहते हैं।
शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र
ज्ञान तथा समझ में शिक्षा मनोविज्ञान प्रयोग में आती है।
व्यक्तित्व और समायोजन में।
व्यक्तित्व के दो प्रकार होते हैं अंतर्मुखी और बहिर्मुखी।
शिक्षा मनोविज्ञान में मापन और मूल्यांकन जरूरी है।
मूल्यांकन:- दो प्रकार का अव्यय:- फिजूल खर्चा। अवरोधन:- बाद आया रुकावट।
इसके अंतर्गत बालकों के अधिगम से संबंधित विभिन्न पहलुओं का अध्ययन किया जाता है।
व्यक्तित्व एवं इसके समायोजन से संबंधित समस्याओं का अध्ययन किया जाता है।
शिक्षा मनोविज्ञान का महत्व:-
शिक्षा मनोविज्ञान अपव्यय और अवरोधन दूर करने का कार्य करता है।
बाल केंद्रित शिक्षा:- बालक को केंद्र मानकर शिक्षा का कार्य करना शिक्षा मनोविज्ञान बताता है।
शिक्षा पद्धतियों में परिवर्तन:- बालकों की समझ के अनुसार शिक्षण विधियों का प्रयोग करके शिक्षा प्रदान करना।
बालकों को प्रयोग करके या प्रस्तुतीकरण करके सिखाना ही एक महत्वपूर्ण पद्धति है।
पाठ्यक्रम में परिवर्तन:- विद्यार्थियों के अनुसार पाठ्यक्रम का निर्धारण हो और केवल किताबी ज्ञान पर आधारित पाठ्यक्रम नहीं होना चाहिए क्योंकि ऐसा पाठ्यक्रम होना जो बालक के व्यवहारिक जीवन में काम आ सके।
अर्थात शिक्षा के अनुसार पाठ्यक्रम का निर्धारण बालक के अनुसार किया जाता है ।
शिक्षा में परिवर्तन के आधार पर पाठ्यक्रम में सुधार:-
समय सारणी में परिवर्तन:- विद्यार्थियों के अनुसार समय सारणी का निर्धारण।
बालकों की सक्रियता के अनुसार समय सारणी में परिवर्तन। और पाठ्य सह सामग्री का निर्माण या निर्धारण।
अभिवृद्धि एवं विकास की अवधारणा
व्यक्ति की शारीरिक आकार परिमाप में बढ़ोतरी होना वर्दी है जिसे शारीरिक विकास भी कहते हैं।
शारीरिक वृद्धि के लिए उचित पोषण और संरक्षण के साथ ही व्यक्तिगत रुप से आरोग्यता का होना आवश्यक होता है या तंदुरुस्त आ का होना आवश्यक होता है।
शारीरिक वर्दी जिसे शारीरिक विकास भी कहते हैं एक निश्चित आयु अवस्था तक पूर्णता को प्राप्त कर लेती है। जिसे परिपक्वता कहते हैं।
जिसके बाद प्रत्येक व्यक्ति मानवीय जीवन की संपूर्ण जिम्मेदारियों को निभाने के लिए योग्य और सक्षम बन जाता है वर्दी के साथ-साथ प्रत्येक व्यक्ति में आंतरिक अंगों का विकास तंत्रिका तंत्र विकास अस्थि तंत्र का विकास परिसंचरण तंत्र का विकास के साथ-साथ मानसिक शक्तियों का विकास क्रमिक रूप से अनुरीत होता रहे तो प्रत्येक व्यक्ति शारीरिक रूप से संतुलित और सामाजिक रूप से व्यवस्थित हो पाता है।
एक निश्चित समय अवधि के बाद वृद्धि रुक जाती है लेकिन विकास सतत रूप से चलता रहता है।
विकास के आयाम शारीरिक पर्यावरण और सामाजिक होते हैं।
वृद्धि और विकास के सिद्धांत
निरंतरता का सिद्धांत
वृद्धि और विकास की गति एक समान नहीं होती है। विकास समरूप दर से गति करता है सिरोही मुख और केंद्र से अफरीदी की ओर विकास होता है।
विकास 2 दिशाओं में संपन्न होता है। परिपक्वता और अधिगम
परिपक्वता अर्थात फिजिकल डेवलपमेंट या शारीरिक विकास
अधिगम अर्थात सीखने का विकास या संज्ञानात्मक विकास मेंटल डेवलपमेंट
विकास में व्यक्तिगत अंतर होता है। अनुवांशिकी या जीन कोड और पर्यावरण या पोषण।
विकास की प्रक्रिया एकीकृत होती है।
शिक्षक और अधिगम कर्तव्यों के लिए मनोविज्ञान का महत्व
औपचारिक शैक्षणिक व्यवस्था में विषय वस्तु के माध्यम से समाज और राष्ट्र के लिए स्वस्थ शिक्षित प्रशिक्षित कौशल पंप तथा नवाज चारों से युक्त और महत्वकांक्षी नागरिक तैयार किए जाने की प्रक्रिया को संपादित करते हैं।
आज बाल केंद्रित शिक्षा व्यवस्था में बालकों को कैसे कब किस प्रकार क्यों शिक्षित और प्रशिक्षित किया जाता है इसका निर्धारण अध्यापक को करना है कि बालकों की क्षमता क्या है रुचि क्या है प्रासंगिकता क्या है पूर्ण।
इन सब तथ्यों को जानने के लिए प्रत्येक अध्यापक को सेवा पूर्वक प्रशिक्षण। सेवाकालीन प्रशिक्षण में शिक्षा और बाल मनोविज्ञान के ज्ञान से संकलित और प्रशिक्षित होना वांछित है अधोलिखित बिंदुओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि अध्यापकों की मनोविज्ञान या शिक्षा मनोविज्ञान की मेहता या महत्व बहुत अधिक है।
शिक्षा मनोविज्ञान अध्यापकों को सम्यक दृष्टिकोण प्रदान करता है। शिक्षा मनोविज्ञान कक्षा कक्ष में उचित शैक्षणिक वातावरण तैयार करने में शिक्षक की सहायता करता है।
शिक्षा मनोविज्ञान के ज्ञान से अध्यापकों में प्रजातांत्रिक भाव की जागृति मानवीय स्तर तक की होती है।
शिक्षा मनोविज्ञान अध्यापकों को विषय वस्तु के प्रस्तुतीकरण के लिए उचित शिक्षण विधियां या पर्याय विधियों को सिखाता है।
अनुवांशिकता
अनुवांशिकता देवी क विरासत है जो प्रत्येक प्राणी को उसके जन्मों से प्राप्त होती है यह अनुवांशिकता जीन विनिमय
के माध्यम से थोड़ी परिमार्जित हो जाती है।
बाल विकास को अनुवांशिकता और पर्यावरण दोनों प्रभावित करते हैं जन्मों से समितियों का विभिन्न आयामों में भी नाना अनुवांशिकता है जबकि उन आयामों गुणों और लक्षणों में परिमार्जन करना पर्यावरण में संभव होता है अनुवांशिकता प्राकृतिक जो जन्म कौन से प्राप्त होती है लेकिन हम जिस प्राकृतिक व्यवस्थाओं से आवंटित हैं वह पर्यावरण है।
पर्यावरण को कृत्रिम ता प्रदान की जा सकती है। जैसे परिवार समुदाय पढ़ो स्कूल इत्यादि जिससे व्यक्ति के अनुवांशिक य लक्षणों को उत्तरोत्तर श्रेष्ठ बनाए जाने की व्यवस्था निहित होती है।
प्रत्येक व्यक्ति के लिए मनोवैज्ञानिक रूप से पर्यावरण और उसके घटक उद्दीपक के रूप में जन्म से जन्मांतर तक प्रस्तुत होते हैं।
अच्छी सामाजिक आर्थिक परिस्थिति वाले परिवारों के अभिभावक अपने बच्चों के उचित समय पर वांछित सहायता करते हैं।
अच्छी आर्थिक सामाजिक परिस्थिति वाले अभिभावक बालक की व्यक्ति इतिहास विधि में सहायता करते हैं। समुदाय संसाधन के अलावा सेवाओं के अलावा व्यवसायिक सहयोग प्रदान करता है।
विकास को प्रभावित करने वाले कारक मैं मुख्यतः विद्यालय परिवार और आपसी संबंध प्रमुख है।
जैविक कारक
माता और पिता अर्ध कोशिकाओं के संयोग मन के बाद एक पूर्ण कोशिका युग मनोज बनता है जो प्लेसेंटा के माध्यम से मात्र शरीर से जुड़ता है और नवजात के जन्म से पहले तक जो विकास होता है उसको पूर्णिया विकास कहा जाता है। प्लेज़ेंटों के माध्यम से पूर्ण को मात्र शरीर से पोषण प्राप्त होता है तथा संरक्षण होता है जिसे पोषणीय विकास कहते हैं अर्थ आवर विद्यालय के माध्यम से औपचारिक शिक्षा इन सब प्रक्रियाओं को संज्ञान में लाने के लिए विद्यालय औपचारिक शिक्षा प्रणाली में विषय वस्तु के माध्यम से छात्र-छात्राओं को भावी जीवन की इन प्रक्रियाओं के बारे में शिक्षण अधिगम करवाया जाता है।
सामाजिक कारक
एक नवजात अपनी प्रारंभिक अवस्था में असामाजिक होता है लेकिन पारिवारिक और कृत्रिम पर्यावरणीय वातावरण में संज्ञानात्मक रूप से विकसित होता है तथा उसकी व्यवहार से ली सामाजिक होने लगती है।
विद्यालय व्यवस्था में बालक सामाजिक रूप स और अधिक प्रमाणित होते हैं क्योंकि विद्यालय समाज के लोगों रूप होते हैं जिसमें प्रत्येक अध्यापक सामाजिक अभिकर्ता के रूप में कार्यरत हैं होते हैं।
विद्यालय में बालकों को विषय वस्तु के माध्यम से सैद्धांतिक रूप से सामाजिक रीत करते हैं तथा सह शैक्षिक गतिविधियों के माध्यम से सामाजिक व्यवहार सिखाते हैं यथा खेलकूद प्रार्थना सभा रंगमंच समाज सेवा व स्काउट और गाइड इत्यादि।
3)आर्थिक कारक
मानवीय जीवन के किसी भी काल में आर्थिक कारक और परिस्थितियां व्यक्ति को प्रभावित करती हैं। यदि परिवार की आर्थिक दशा कमजोर है तो उस बालक का पोषण भी प्रभावित होगा जिससे उसके सन आयुक्त तंत्र में अध्यक्षता के चलते संवेग भी स्थिर हो जाएंगे। इन सब नकारात्मक व्यवस्थाओं से उभरने में विषय वस्तु के माध्यम से मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों के अनुकरण से उबरा जा सकता है।
4) ममत्त्व या अपनत्व
5)खेल और सहस शैक्षिक गतिविधि:-
इन के कारण मानसिक समन्वय ता होती है।
6)मार्गदर्शन और पाठ्यचर्या
बाल्यावस्था की अवधारणा
प्रत्येक माननीय प्राणी जन्म के समय असामाजिक संवेदना सुनने व शारीरिक रूप से संबंधित होता है। जन्म के बाद पर्यावरणीय संपर्क में आने से शारीरिक और संज्ञानात्मक विकास के साथ-साथ वह संवेदनशील व सामाजिक रीत होने लगता है। भाषा कौशल में शब्दों को उच्चारित करना आरंभ करता है। उसकी समृद्धि और प्रत्याशी गान जागृत होने लगता है। शब्द संकलन भंडारण बढ़ने लगते हैं और वह घर की दहलीज को लांग कर समुदाय क्यों निकलते हुए समुदाय के लघु रूप विद्यालय में पहुंचता है। जहां उसके सर्वांगीण विकास किए जाने की प्रक्रिया अनवरत रहती है। और सर्वांगीण विकास होता है। बाल्यावस्था व्यवस्था है जिसमें बालक असामाजिक से सामाजिक और संवेदनशील होने लगता है। इस अवस्था में वह प्रारंभिक विद्यालय स्तर पर अपना पदा दर्पण करता है। विद्यालय में विभिन्न विषयों की विषय वस्तु के माध्यम से अपने आप को अध्ययनरत करते हुए आगे बढ़ता है। 4 से 7 वर्ष की अवस्था को पूर्व बाल्यावस्था या प्रीस्कूल एज कहा जाता है। तथा 8 से 11 वर्ष की अवस्था को उत्तर बाल्यावस्था या कुरूपता की अवस्था कहा जाता है।
परिभाषाएं
जन्म से 10 या 11 वर्ष की आयु बाल्यवस्था कहलाती है। इसमें एक व्यक्ति अपने भावी जीवन की संपूर्ण तैयारी करता है। शेष अवस्था के बाद और किशोरावस्था से पहले की बाल्यवस्था कहलाती है। व्यवस्था को भी 2 अवस्थाओं में वर्गीकृत किया जा सकता है।
1)पूर्व बाल्यावस्था:-
इस अवस्था को प्रीस्कूल इन एज भी कहा जाता है। इसे ब्यूटी ऐज भी कहा जाता है।
2)उत्तर बाल्यावस्था:-
यह लगभग 8 से 11 वर्ष को मानी जाती है। इस अवस्था को कुरूपता और चंचलता की अवस्था भी कहा जाता है। उत्तर बाल्यावस्था में वजन की तुलना में लंबाई बढ़ने लगती है। इसे एज ऑफ डर्टी या स्मार्ट भी कहा जाता है।
ब्लेयर जोंस और सिंपसन के अनुसार
शैक्षिक दृष्टि से मानवीय जीवन यात्रा मैं बाल्यवस्था से महत्वपूर्ण कोई अवस्था नहीं है। इस अवस्था में बालक को पढ़ने वाले शिक्षकों को चाहिए कि वह बालक को की आवश्यकताओं और समस्याओं को समझते हुए परिस्थिति वात शिक्षण कार्य करवाकर अपेक्षित व्यवहार गत परिवर्तन करने का प्रयास करें।
कोले के अनुसार
बाल्यावस्था जीवन का अनोखा काल है। विशेषताएं:-
जीवन का स्वर्णिम काल।
जीवन का अनोखा काल।
जीवन का निर्माण काल।
मीठे परिपक्वता काल।
रोस के अनुसार
बाल्यावस्था मिथ्या परिपक्वता का काल है।
कॉले एवं ब्रूस के अनुसार
वास्तव में माता-पिता के लिए बाल विकास की अवस्था को समझना कठिन है।
किलपैट्रिक के अनुसार
बाल्यावस्था जीवन का निर्माण है।
Full Nots link-Paper- 2
बाल्यावस्था की विशेषताएं
1)शारीरिक व मानसिक स्थिरता:-
सबसे महत्वपूर्ण विशेषता 6 या 7 वर्ष की आयु के बाद शारीरिक और मानसिक विकास में स्थिरता आ जाती है। यह स्थिरत उसकी शारीरिक और
मानसिक शक्तियों को दृढ़ता प्रदान करती हैं।
2)मानसिक योग्यता में वृद्धि:-
बाल्यावस्था में बालक की मानसिक योग्यता में निरंतर वृद्धि होती है। उसकी संवेदना और प्रत्यक्षीकरण की शक्तियों में वृद्धि होती है पूर्णविराम वह विभिन्न बातों के बारे में तर्क और वितर्क करने लगता है। यह अवस्था बातों पर अधिक बल केंद्रित करता है।
3)जिज्ञासा की प्रबलता:-
बालक की जिज्ञासा विशेष रूप से प्रबल होती है पूर्णविराम वह जिस वस्तुओं के बारे में संपर्क में आता है। उसके बारे में जानने की इच्छा करता है।
4)नैतिक मूल्यों का विकास:-
शेष अवस्था में बालक नैतिकता के अभाव में रहता है। बाल्यावस्था में ही नैतिकता का विकास होता है। अपनी जिम्मेदारियों को पहचान सकता है।
सामाजिक मूल्यों की समझ विकसित होना।
5) निर् के भ्रमण की प्रवृत्ति:-
बिना किसी कार्य के घूमते फिरते रहते हैं।
बर्ट के अनुसार
9 वर्ष के बालक बिना किसी उद्देश्य के कारण ही भ्रमण करते हैं।
6)सामूहिक खेलों में रुचि
स्ट्रांग के अनुसार 12 वर्ष के बच्चों ने शायद ही ऐसा खेल होगा जो खेला नहीं है।
7) सामाजिक गुणों का विकास
बोलने और रहने का ढंग सिखाता है। बाल्यावस्था मे बालक के अंदर सामाजिक विकास के गुणों का काफी हद तक विकास होता है।
8) रचनात्मक कार्यों में रुचि:-
तरह-तरह की रचनाओं को जोड़ते हैं और उसे अंजाम तक पहुंचाते हैं। लकड़ी में मिट्टी के घर बनाना कागज की कश्ती और जहाज बनाना।
9) अन्य विशेषताएं
वस्तुओं के संग्रहण की प्रकृति। दूसरे बालकों के साथ बातें करने में ज्यादा व्यस्त रहते हैं। या खेलने कूदने में।
विभिन्न वैज्ञानिकों का शिक्षा में योगदान
BF स्किनर का क्रिया समूह का सिद्धांत
स्किनर ने अपने प्रयोग चूहों और कबूतरो पर किया। उन्होंने अपने प्रयोग में दो प्रकार की क्रियाओं पर प्रकाश डाला
प्रथम क्रिया प्रसूत और दूसरा उद्दीपक प्रसूत ।
अपने प्रयोग में किन्नर ने भूखे चूहे को कई सारे लीवर लगे बॉक्स में बंद कर दिया। उनमें से एक लीवर दबने से बॉक्स का दरवाजा खुलने वाला है। बॉक्स के अंदर चूहे के उछल कूद से संयोग मन से सही स्प्रिंग संयोग से दबी बॉक्स का दरवाजा खुला चूहा बाहर आया और भोजन प्राप्त किया।
इसी प्रयोग को कई बार दोहराया तो उन्होंने देखा कि प्रत्येक बार के प्रयोग में स्प्रिंग दबाकर दरवाजा खुलने की समय अवधि में कमी आ रही है। और एक स्थिति आई जब भूखे चूहे को स्प्रिंग्वाले बॉक्स में बंद करते ही सटीक स्प्रिंग को दबाकर दरवाजा खोलना सीख लिया।
बीएफ स्किनर के सिद्धांत को क्रिया प्रसूत या अनुबंधन सिद्धांत भी कहा जाता है।
क्रिया प्रसूत अनुबंधन सिद्धांत और शिक्षक
1)सीखने( या व्यवहार परिवर्तन) का स्वरूप प्रदान करना:- सीखने में आसानी होती है।
2) शब्द भंडारण में आसानी और शब्द भंडारण में वर्दी। शब्द शिक्षकों के द्वारा पुनर्बलन के द्वारा सुस्पष्ट कर देते हैं।
योग्यता के अनुसार पुनर्बलन प्रदान करना।
3) निदानात्मक शिक्षण:- बीएफ स्किनर के सिद्धांत के माध्यम से कक्षा कक्ष में विद्यार्थियों को जानता जा सकता है और उसको उपचारात्मक शिक्षण की तरफ ले जाया जावेगा विद्यार्थियों से शिक्षक विषय वस्तु जो पढ़ाया है उसकी प्रतिपुष्टि लेकर शिक्षण व्यू को प्रभावी बनाया जा सकता है। बीएफ स्किनर के सिद्धांत के माध्यम से शिक्षक अपने शिक्षण कार्य को और अधिक प्रभावी बना सकता है।
4) पुनर्बलन- कक्षा कक्ष में विषय वस्तु की प्रस्तुतीकरण के बाद पृष्ठ पोषण के स्तर के अनुसार एक अवार्ड है।
पृष्ठ पोषण:- फीडबैक
मौखिक शैक्षणिक अवार्ड विवरंजन शाबाश बढ़िया अच्छा है इत्यादि
5)संतुष्टि या संतोषप्रद अनुभवों की प्राप्ति
सिगमंड फ्रायड का सिद्धांत मनोविश्लेषणात्मक फ्रायर्ंड ने अपने सिद्धांत में आंतरिक मन और उस व्यक्ति की बुद्धि के कार्य करने के तीन आधार बताए हैं प्रथम चेतना दूसरा अर्थ चेतन और तीसरा चेतन
अन्य शब्दों में सिगमंड फ्रायड ने यह तीन आधार बताएं
1 Ed
2 Ego
3 Super ego
चेतन:-
इस अवस्था में व्यक्ति सजग और सतर्क होकर विचारों के द्वंद के बिना सही निर्णय से कार्य करें तो इस व्यवस्था को व्यक्ति का चेतन मन कहा जाता है। इससे व्यक्ति या बालक शुद्ध एवं स्पष्ट निर्णय लेने हेतु सक्षम बना रहता है।
अचेतन मन:-
फ्रायर्ंड ने ए चेतन मन को अधिक महत्व दिया है क्योंकि प्रत्येक बालक या व्यक्ति के चित मन में बहुत बड़ा हिस्सा काम भावनाओं से आब रहता है। जिससे वह आंतरिक स्थिति में सूखा अनुभूति महसूस करता है। सिगमंड फ्रायड ने के अनुसार व्यक्ति का अचेतन मन समस्त प्रकार के विचारों का भरा होता है। लेकिन मन से अर्थ चेतन में होते हुए चेतना अवस्था में विचार संग्रहित होते रहते हैं। सिगमंड फ्रायड ने इसे मन के केंद्र के रूप में स्वीकार किया है।
अर्ध चेतन
सिगमंड फ्रायड ने इसे मन को केंद्र मानकर स्वीकार किया है। यह चेतन और अचेतन के बीच की अवस्था है। इसलिए इसे सुनने अवस्था भी कहते हैं। विकार युक्त विचार अनैतिक चिंतन सहित समस्त अराजक व्यवस्थाएं व्यक्ति बोलना चाहता है क्योंकि समाज सम्मत नहीं होने के कारण इन्हें फलीभूत नहीं किया जा सकता। आता है इन सब को ए चेतन अवस्था में धकेल दिया जाता है जिन्हें दमित इच्छाएं कहते हैं। कालांतर में यह दमित इच्छाएं चेतन अवस्था से चेतन अवस्था में आना जाती है यह व्यवस्था अर्ध निंद्रा स्थिति में बनती है जो स्वपन होता है।
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