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| अधिगम का अर्थ |
About
आज हम शिक्षण अधिगम के मनोवैज्ञानिक
आयाम संज्ञानात्मक मनोविज्ञान का अर्थ
संपर्क महत्व क्षेत्र और शिक्षण अधिगम के
साथ संबंध सामाजिक विकास का अर्थ
संप्रत्य महत्व सामाजिक प्रक्रिया सामाजिक
विकास का अर्थ संप्रत्य प्रक्रिया आध्यात्मिक
विकास का अर्थ संप्रत्य प्रक्रिया मैं तो एक क्षेत्र
तथा इनका शिक्षण अधिगम में संबंध।
प्रभावशाली शिक्षण अर्थ कारक मानदंड
कुरुक्षेत्र शिक्षण कौशल का परिचय शिक्षण के
सिद्धांत कक्षा कक्षा अनुदेशन रणनीतियां
अधिगमकर्ता के रूप में शिक्षक शिक्षक की
जिम्मेदारियां सांस्कृतिक विविधता वाले
विद्यार्थियों के लिए शिक्षण संस्थान में
शिक्षण शास्त्र का सिद्धांत आदि के बारे में
आसान भाषा में समझेंगे।
संज्ञानात्मक मनोविज्ञान
संज्ञानात्मक मनोविज्ञान,
मनोविज्ञान की वह शाखा है
जो इस बात का अध्ययन करवाती है
कि लोग कैसे सोचते हैं ध्यान देते हैं
समृद्धि करते हैं चिंतन करते हैं भाषा
को उपयोग करते हैं तथा समस्याओं को
हल किस प्रकार करते हैं।
संज्ञान शब्द का अर्थ है - जानना या
समझना यह ऐसी प्रक्रिया है जिसमें विचारों
के द्वारा ज्ञान प्राप्त किया जाता
संज्ञानात्मक विकास शब्द का प्रयोग मानसिक
विकास अर्थ में किया जाता है।
जिससे बुद्धि के अतिरिक्त सूचना का प्रत्यक्षीकरण
पहचान और समृद्धि व व्याख्या स्पष्ट हो जाती है
अतः संज्ञान में मानव की विभिन्न गतिविधियों का
मानसिक संबंध होता है।
संज्ञानात्मक मनोविज्ञान शब्द का प्रयोग 1967 में
मुस्ताक नाइजर ने किया था।
स्विट्जरलैंड के मनोवैज्ञानिक जीन पियाजे के
संज्ञानात्मक विकास अनुकरण की तुलना में
खोज पर आधारित होना बताया इसमें व्यक्ति
की ज्ञानेंद्रियों के प्रत्यक्ष अनुभव से समाज का
विकास होता है।
जिससे पियाजे के संज्ञानात्मक विकास की
4 अवस्थाओं का उल्लेख किया है
1 इंद्रिय जनित गामक अवस्था
2 पूर्ण क्रियात्मक अवस्था
3 संक्रियात्मक अवस्था
4 मूर्त संक्रियात्मक अवस्था
संज्ञानात्मक मनोविज्ञान में व्यक्तिगत ज्ञान अर्जित
करने के लिए मानसिक कौशल को विकसित कर
हासिल करना प्रमुख उद्देश्य।
महत्व
संज्ञानात्मक मनोविज्ञान के ज्ञान से अध्यापक अपने विद्यार्थियों को ठीक तरह से जान पाता है। तत्पश्चात उपचारात्मक शिक्षण कर विषय वस्तु के प्रति विद्यार्थी की समझ को बढ़ाने के लिए प्रयास कर पाता है।
संज्ञानात्मक मनोविज्ञान मस्तिष्क तंत्रिका तंत्र बौद्धिकता चिंतन और तर्क करने के लिए व्यक्ति को तैयार करती है।
संज्ञानात्मक मनोविज्ञान सामान्य मनोविज्ञान से अलग बोध जागृति का विकास करता है।
किसी भी व्यक्ति को संज्ञानात्मक मनोविज्ञान की समस्या के समाधान के लिए तैयार करता है।
किसी जन समूह में संज्ञानात्मक विकास उस समूह या समुदाय के समग्र विकास को प्रदर्शित करता है।
वास्तविक रुप से अधिगम कर्ताओं का संज्ञानात्मक विकास ही उनकी बौद्धिक संपदा होती है।
संज्ञानात्मक मनोविज्ञान के क्षेत्र
1)संज्ञानात्मक मनोविज्ञान के प्रमुख क्षेत्र निम्नलिखित हैं
समस्या समाधान विधि।
2) सूचना प्रसंस्करण:- सूचना के गहनता से चिंतन मनन करके प्रस्तुत करना। और ज्यादा से ज्यादा सूचना का पुष्टिकरण करके प्रस्तुत करना।
3) दीर्घकालिक स्मृति :- बोधात्मक जागृति का होना। पूर्व कालिक समय की स्मृति।
4) सवैदिक प्रतिरूपण:- संवेदनाओं का रूपांतरण।
सामाजिक विकास का अर्थ
समाज में प्रत्येक व्यक्ति की दक्षता को प्राप्त करने के लिए व्यक्तिगत रूप से समाज में होने वाली प्रक्रियाओं को सामाजिक विकास कहा जाता है। सामाजिक विकास प्रत्येक व्यक्ति के समय को रूपांतरित करता है। प्रत्येक में समझ विकसित करता है और प्रत्येक की अभिरुचि और अभिवृत्ति तय करता है।
परिभाषा
वेवसटर के अनुसार
सामाजिकरण भावी जीवन जीने के लिए तैयार होने की प्रक्रिया है जिससे प्रत्येक व्यक्ति समाज के लिए उत्पादक बन सके।
ग्रीन के अनुसार
सामाजिकरण है वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा बालक सांस्कृतिक विशेषताओं आतम अभिव्यक्ति और सादगी के समायोजन को प्राप्त करता है।
किमबाल एग के अनुसार
सामाजिकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में प्रवेश कर समाज के विभिन्न समूह का सदस्य बनता है।
रोसो के अनुसार
सहयोग के साथ अहम का विकास और कृतज्ञता विकसित होने की क्षमता सामाजिकरण कहलाती है।
सामाजिकरण की विशेषताएं
सामाजिकरण सीखने की प्रक्रिया है। अनौपचारिक
सामाजिकरण एक अनवरत या निरंतर प्रक्रिया है।
सामाजिकरण सूचनाओं के संकलन की प्रक्रिया है जिसमें अनुभव और अनुभूति या फिलिंग्स होती है।
समाजीकरण की प्रक्रिया बालक के सामाजिक और वृत्त का विस्तार है।
सामाजिकरण बाल विकास या संज्ञानात्मक विकास के समानांतर चलने वाली प्रक्रिया है।
बालक की जीवन यात्रा में सामाजिकरण प्रक्रिया के अलग-अलग घटक और उपलब्धियां होती हैं।
समाजीकरण की प्रक्रिया अवस्था अनुरूप व्यवहारों का प्रदर्शन है
सामाजिकरण एक जिम्मेदार नागरिक तैयार होने की प्रक्रिया है।
सामाजिकरण के सिद्धांत
दुर्खीम सिद्धांत
इसने अपने सामाजिक सिद्धांत के अंतर्गत दो प्रकार की चेतनाओं की कल्पना की।
एक है:- व्यक्तिगत चेतना।
और दूसरी है सामूहिक चेतना।
व्यक्तिगत चेतना से ही सामूहिक चेतना का निर्माण होता है दुर्खीम के अनुसार प्रत्येक समुदाय में कुछ विचार धारणाएं और मान्यताएं होती है जो सभी सदस्यों में सामान्य होती है। अतः यह सामूहिक प्रतिनिधित्व करती है। यह परंपरा रीति-रिवाज प्रथाएं धार्मिक मूल्य और आदर्श सामूहिक चेतना या प्रति धारणा या स्वीकार्यता के दृष्टांत हैं।
इनकी उत्पत्ति व्यक्ति विशेष से न होकर समाज के अधिकांश व्यक्तियों द्वारा स्वीकृति से होती है। इसलिए समूह के सभी लोग इनका पालन करते हैं नैतिकता पूर्ण आचरण करते हैं और उल्लंघन करने वालों को दंड प्रदान करते हैं।
कुल्ले का स्वदर्पण सिद्धांत
इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति का स्व या आतम, वास्तव में आतम दर्पण होता है। अर्थात दूसरों का उसके प्रति दृष्टिकोण एवं मूल्यांकन है जिसमें व्यक्ति दूसरा या अन्य की दृष्टि में स्वयं को देखता है। स्वर के विकास के प्रारंभिक स्तर पर व्यक्ति दूसरों की दृष्टिकोण के अनुसार अपना मूल्यांकन करता है। और अपने लिए कोई विचार वह बालक या व्यक्ति इस आधार पर बनाते हैं कि दूसरे उसके बारे में क्या सोचते हैं।
परिणाम का:- वह बालक दूसरों के विचारों और आत्म को समाविष्ट कर लेता है।
सिगमंड फ्रायड का सिद्धांत
मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांत सामाजिकरण से संबंधित सिगमंड फ्रायड ने तीन घटकों का उल्लेख किया है:-
1)आत्म या स्व या सेल्फ।
2) अहम या अहंकार या ईगो।
3) परम अहम या अति अहंकार या सुपर ईगो।
यह तीनों एक व्यवस्था है।
इन घटकों के आधार पर फ्रायर्ंड ने बताया कि बालक की मूल प्रवृत्ति जो जैविक ऊर्जा से संचालित होती है। वह अपने आतम तक केंद्रित रहता है। लेकिन परिवार समुदाय और समाज के संपर्क में आने से उसमें अहम का विकास होता है।
समाज में रहते हुए वह निर्धारित नियमों के अंतर्गत रहते हुए अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने का प्रयास करता है। जिसे अहम की जागृति होती है।
बालक के संस्कृति के अनुसार व्यवहार करना आरंभ करता है तथा चेतन अवस्था में यह निश्चित करता है कि किस प्रकार की क्रिया या व्यवहार करना है या नहीं करना है। इसमें व्यक्ति तार्किक दृष्टिकोण से विश्लेषण करता है कि मुझे कार्य किया विशेष करना है या नहीं जब व्यक्ति के अहम और परम अहम में असंतुलित अवस्था बनती है तो उसमें तनाव उत्पन्न होता है जिससे अहम परम अहम पर रुचि (बिना स्वार्थ के )बनकर कार्य करना आरंभ कर देता है।
अवसरों पर असामाजिक किया अराजकता पूर्ण हो सकती है।
फ्रायड के मनोविश्लेषण आत्मक सिद्धांत में प्रमुख तीन घटक बताए गए हैं:-
1)चेतन या जागृत अवस्था 10 प्रतिशत
इस अवस्था में व्यक्ति खुश रहता है अर्थात वर्तमान में जीता है। वर्तमान में जीना ही सुखा अनुभूति है।
2) अर्ध चेतन मन
ऐसे में व्यक्ति के मन में जो याद होते हैं लेकिन अब याद ना आए लेकिन जब ज्यादा जोर दिया जाता है तो याद आ जाता है। इस स्थिति को अर्ध चेतन मन कहते हैं।
3) अचेतन मन
इस प्रकार के मन जाग्रता नहीं होती है यह दुखी दमित या जिनक दमन हो गया है या दबी हुई इच्छाओं का भंडार होता है।
जॉर्ज मिड का सिद्धांत
मिड ने अपने सामाजिकरण के सिद्धांत में समाज को महत्वपूर्ण माना है। मिड ने बताया कि आत्म चेतना सामाजिकरण का मूल आधार है। उन्होंने बताया कि सामाजिकरण का निर्माण अंतः क्रिया के परिणाम स्वरूप होता है। मिड ने व्यक्ति के दो स्वरूप का उल्लेख किया है।
पहला जैविक है
और दूसरा सामाजिक है।
जब बच्चा जन्म लेता है तो वह जेवीके व्यक्ति होता है तथा वह आंतरिक प्रेरणा उस प्रेरित क्रियाएं करता है।
परिवार समुदाय और समाज के संपर्क में आने से वह समझने लगता है कि लोग उस से किस प्रकार के व्यवहार की अपेक्षा रखता है।
इस प्रकार एक बालक का आतम या सेल्फ अन्य दूसरे लोगों से प्रभावित होता है जिसे मिटने सामान्य कृत अन्य सिद्धांत का नाम दिया जिसका अर्थ होता है कि किसी व्यक्ति के स्वयं के बारे में वह धारणा जो कि दूसरे लोग उसके बारे में रखते हैं।
व्यक्ति में आतम का विकास किस प्रकार होता है इस हेतु मिड ने बताया मैं और मुझे के सिद्धांत में बताया
जिसमें मैं का अर्थ होता है व्यक्ति द्वारा दूसरों के प्रति किए जानने वाले व्यवहार तथा मुझे:- व्यक्ति द्वारा अपने लिए किए जाने वाला व्यवहार |
संवेगात्मक विकास
जीवन में संवेगों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है तथा व्यक्ति के व्यक्तित्व एवं सामाजिक विकास में संवेगों का योगदान होता है। लगातार संवेगात्मक संतुलन या ए स्थिरता व्यक्ति के विकास और वर्दी को प्रभावित करती है तथा अनेक प्रकार की शारीरिक सामाजिक और मानसिक समस्याओं को उत्पन्न करती है। दूसरी और संवेगात्मक रूप में स्थिर व्यक्ति स्वस्थ खुशहाल एवं शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करता है। अतः संवेग व्यक्ति के व्यक्तित्व के सभी पक्षों को प्रभावित करते हैं।
संवेगात्मक विकास का अर्थ
अंग्रेजी का इमोशन शब्द लैटिन भाषा के शब्द Emovere से लिया गया है।
Emovere का अर्थ होता है:-to excite अर्थात:- उत्तेजित होना।
संवेगात्मक विकास की परिभाषा
वूडवर्थ के अनुसार
संवेग व्यक्ति की उत्तेजित दशा है।
रोस के अनुसार
संवेग चेतना की अवस्था है जिसमें भावनाओं की प्रधानता होती है।
जर शिल्ड के अनुसार
किसी भी प्रकार के आवेश के आने भड़क उठने या व्यग्र हो जाने की अवस्था को समय कहते हैं।
उपरोक्त परिभाषा के आधार पर हम कह सकते हैं कि
जटिल मानसिक अवस्था जिसमें शारीरिक व मानसिक पक्षों का समावेश होता है।
इनमें सुख-दुख की अनुभूति कम या अधिकतम होती है।
संवेदी अवस्था में तंत्री किया समन्वय हृदय की धड़कन तथा अंतर्यामी ग्रंथियों के स्राव अधिकतम या निम्नतम होते हैं।
व्यक्ति की चिंतन एवं तर्क शक्ति क्षीण हो जाती है।
संवेग में व्यक्ति आगे गीत बल्कि अनुभूति करता है।
संवेगों के विकास के संदर्भ में दो मत हैं।:-
1.)जन्मजात संवेग:-
होलिंग वरथ के अनुसार इन्हें प्राथमिक संवेग भी कहा जाता है। जैसे भय क्रोध प्रेम आदि।
2)अर्जित संवेग
इन सब लोगों का विकास एवं अभिवृत्ति के साथ समांतर संबंध है। जन्म के समय इस समय गांव का अभाव होता है लेकिन पर्यावरणीय संपर्क में आने से अर्जित समय गुणों का विकास होता है। इन्हें द्वितीयक संवेग भी कहा जाता है जैसे सुख सनेह हर्ष संतोष उत्सुकता चिंता दुश्चिंता जिज्ञासा आदि।
संवेगात्मक विकास या संवेगों की विशेषताएं
- संवेगात्मक अनुभव किसी मूल प्रवृत्ति या जैविक के उत्तेजना से जुड़े होते हैं।
- सामान्यतः संवेग प्रत्यक्षीकरण का उत्पादन होते हैं।
- प्रत्येक संवेगात्मक अनुभव के दौरान प्राणी में अनेक शारीरिक परिवर्तन होते हैं।
- संवेग किसी स्थल वस्तु या परिस्थिति के प्रति अभिव्यक्त किए जाते हैं।
- प्रत्येक जीवित प्राणी में संवेग होते हैं।
- विकास के सभी स्तरों में संवेग होते हैं और बच्चे वह बुढो में उत्पन्न किया जा सकते हैं।
- एक ही संवेग को अनेक प्रकार के उत्तेजनाओं वस्तुओं या परिस्थितियों से उत्पन्न किया जा सकता है।
- संवेग शीघ्रता से उत्पन्न होते हैं और धीरे-धीरे समाप्त होते हैं।
बच्चों के संवेगों की विशेषताएं
- बच्चों के संवेग थोड़े समय के लिए होते हैं बच्चे अपने संवेगों की अभिव्यक्ति बाहरी व्यवहार द्वारा तुरंत कर देते हैं जबकि बड़े होने पर भारी व्यवहार पर सामाजिक नियंत्रण होता है।
- बच्चों के संवेगाती पर होते हैं। बच्चे डर क्रोध वह खुशी आदि की अभिव्यक्ति अत्यधिक तीव्रता से करते हैं।
- बच्चों के संवेग अस्थिर होते हैं। बच्चों के संवेगों में शीघ्रता से बदलाव होता है उदाहरण अर्थ अभी लड़ाई और थोड़ी ही देर में तुरंत दोस्ती कर लेते हैं। बच्चों के संवेग बार-बार दिखाई देते हैं क्योंकि वह अपने संवेगों को छुपाने में असमर्थ होते हैं।
- बच्चे दिन में अनेक बार गुस्सा करते हैं या खुश होते हैं।
- बच्चों की संवेगात्मक प्रतिक्रिया में विभिन्नता पाई जाती है एक ही संवेग की अवस्था में प्रत्येक बच्चा अलग-अलग प्रतिक्रिया देता है।
- उदाहरण के लिए:- अजनबी के सामने एक बच्चा भाग जाएगा व दूसरा रोने लगेगा।
बच्चों में पाए जाने वाले संवेगात्मक ढंग
- डर।
- क्रोध।
- ईशा।
- हर्ष संतोष एवं सुख।
- स्नेह है।
- उत्सुकता या कुतूहल।
किशोर में पाए जाने वाले संवेगात्मक व्यवहार
डर। चिंता। दुश्चिंता। क्रोध। इच्छा। जलन की भावना। नाराज होना। जिज्ञासा या उत्सुकता। स्नेह है। दुख। खुशी।
संवेग ओं को प्रभावित करने वाले कारक
परिपक्वता।
स्वास्थ्य और शारीरिक विकास।
बुद्धि। सीखना।
विद्यालय वातावरण।
संगत या मित्रगण साथी।
पारिवारिक वातावरण।
परिपक्वता या maturity:-
संवेग को परिपक्वता काफी हद तक प्रभावित करता है।
लैंगिकता या जेंडर।
बुद्धि या इंटेलिजेंस।
विद्यालय की वातावरण।
घर परिवार समुदाय समाज का वातावरण।
आदर्श अध्यापक के गुण
1) शैक्षणिक या योग्यताएं
2)व्यवसायिक गुण।:- व्यवसाय के प्रति निष्ठा
एवं रुचि होनी चाहिए। और वह इसे केवल
व्यवसाय का साधन नहीं समझना चाहिए।
3) व्यक्तिगत गुण।
4) संबंध स्थापित करने का गुण।
5) विषय वस्तु का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए
6) शिक्षण विधियों का प्रयोग।
7) सहायक सामग्री का प्रयोग
8) मनोविज्ञान का ज्ञान होना जरूरी है।
9) ज्ञान बिपाशा होना जरूरी है।
10) पाठ्य सहगामी क्रियो(CCE )में रुचि।
11) समय का पाबंद होना अनिवार्य है।
12) कुशल वक्ता होना अनिवार्य है।
प्रभावी शिक्षक का व्यवहार
1) सामान्य शैक्षणिक व्यवहार।
2) व्यवसायिक व्यवहार।
3) व्यक्तित्व संबंधी व्यवहार।
4) दृष्टिकोण संबंधी व्यवहार।
सामान्य शैक्षणिक व्यवहार
1) विषय वस्तु में निपुणता होनी चाहिए।
2) ज्ञान की प्यास होनी चाहिए
3) अभिव्यक्ति में प्रवाह होना चाहिए।
4) प्राप्त सामान्य ज्ञान का होना आवश्यक है।
व्यवसायिक व्यवहार
पर्याप्त व्यवसायिक प्रशिक्षण यह सेवा पूर्व प्रशिक्षण
सेवाकालीन प्रशिक्षण।
Unit- 3
अधिगम का अर्थ
अनुभवों से सीखने की प्रक्रिया अधिगम
कहलाती है। जिस व्यक्ति में सीखने की
क्षमता अधिक हो उसका विकास भी
अधिक होता है।
परिभाषाएं
वुडवर्थ के अनुसार
सीखना विकास की प्रक्रिया है।
गिलफोर्ड के अनुसार
व्यवहार के कारण व्यवहार में परिवर्तन ही अधिगम है।
स्कीनर के अनुसर
अधिगम व्यवहार में उत्तरोत्तर सामंजस्य की प्रक्रिया है।
क्रो एंड क्रो के अनुसार अधिगम आदतों
ज्ञान अभिवृत्ति का अर्जन है
पावलव के अनुसार अधिगम अनुकूलित अनुक्रिया के फल स्वरुप आदत का निर्माण है।
गार्डनर के अनुसार
वातावरण के द्वारा व्यवहार में परिवर्तन अधिगम है।
कॉलविन के अनुसार
पहले के निर्मित व्यवहार में अनुभव द्वारा हुए परिवर्तन को अधिगम कहते हैं।
अधिगम की विशेषताएं
अधिगम एक अभ्यास है। अधिगम एक प्रक्रिया है। अधिगम के द्वारा लक्ष्य की प्राप्ति होती है। अधिगम सही प्रति कारों का चुनाव है। अधिगम सार्वभौमिक है। अधिगम परिवर्तन या व्यवहार में परिवर्तन लाता है। अधिगम विकास है। अधिगम अनुकूलन है। अधिगम निरंतर बदलता रहता है। अधिगम की प्रक्रिया रचनात्मक है। अधिगम स्थानांतरण या है।
अधिगम के प्रकार
1) ज्ञानात्मक अधिगम।
2) संवेदनात्मक अधिगम या भावनात्मक अधिगम।
3) गामक अधिगम। या क्रियात्मक अधिगम।
1) ज्ञानात्मक अधिगम
सीखने का यह तरीका बौद्धिक विकास तथा ज्ञान अर्जुन की समस्त क्रियाओं पर प्रयुक्त होता है।
ज्ञानात्मक अधिगम के प्रकार
1) प्रत्यक्ष आत्मक अधिगम:- करके सीखना।
2) प्रत्यय आत्मक अधिक:- अपनी बुद्धि का प्रयोग। अवधारणा आत्मक अधिगम। कांसेप्चुअल लर्निंग।
3) साहचर्य अधिगम:- जब पुराने काम तथा अनुभव के द्वारा किसी तत्व को सिखा जाता है तो उसे साहचर्य अधिगम कहलाता है।
2) संवेदनात्मक अधिगम
संवेदनशील क्रियाओं द्वारा सीखना पूर्णविराम इस प्रकार के सीखने में गामक क्षमताओं का प्रशिक्षण होता है। जैसे तैरना साइकिल चलाना।
गमक:- शारीरिक व मानसिक क्रियो का सम्मिल्खित रूप या साइको मैटर
3) गामक अधिगम
गति पर नियंत्रण व अंग संचालन पर नियंत्रण की आवश्यकता में सीखना जैसे देखना ।
अधिगम को प्रभावित करने
वाले कारक
शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य।
सीखने की इच्छा।
प्रेरणा।
विषय सामग्री का स्वरूप।
वातावरण।
शारीरिक व मानसिक थकान।
अधिगम की विधियां
करके सीखना।
अनुकरण द्वारा सीखना।
निरीक्षण द्वारा सीखना।
परीक्षण द्वारा सीखना।
सामूहिक विधियों द्वारा सीखना।
सहपाठी समूह द्वारा अधिगम।
वाद विवाद विधि द्वारा।
पूर्ण विधि द्वारा।
अंश विधि द्वारा।
मिश्रित विधि द्वारा।
अंतराल विधि द्वारा।
शपथ विधि द्वारा।
वाचन विधि द्वारा।
प्रयास एवं त्रुटि विधि द्वारा।
प्रगतिशील विधि द्वारा।
अधिगम या सीखने के नियम
थार्नडाइक द्वारा दो नियम दिए गए प्रथम मुख्य नियम और दूसरा गोंण नियम
मुख्य नियम
अभ्यास का नियम।
प्रभाव या संतोष का नियम।
तत्परता का नियम।
गोंण नियम:-
बहु प्रतिक्रिया का नियम
Unit- 2
प्रभावशाली शिक्षण
वह शिक्षण है जिससे अधिकांश शिक्षण उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सके अर्थात अधिक से अधिक अधिगम हो सके। इस प्रकार प्रभावशाली शिक्षण वह होता है जिससे शिक्षण प्रक्रिया की अधिगम से अधिकतम निकटता होती है।
बी ओ स्मिथ के अनुसार
शिक्षण को प्रभावशाली बनाने के लिए उसके विभिन्न चरणों एवं उनके कार्यों का सही ज्ञान होना आवश्यक है। शिक्षण की प्रकृति सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक दोनों ही हैं तथा यह कला एवं विज्ञान दोनों है। अतः प्रभावशाली शिक्षण के लिए शिक्षण के स्वरूप तथा शिक्षशिक्षण क्रियो को भी जानना आवश्यक है।
शिक्षक वास्तव में एक तकनीक ही है प्राय देखा गया है कि किसी विद्यालय में कोई शिक्षक बहुत ही लोकप्रिय होते हैं तो कोई खास प्रभावित नहीं होते। इन सब के पीछे यदि गौर से देखें तो हम पाते हैं कि यह सब शिक्षक के शिक्षक के प्रभाव का परिणाम है ऐसा भी पाया गया कि एक विद्यालय के एक ही विषय के दो शिक्षक होने की स्थिति में एक शिक्षक विद्यार्थियों को अधिक प्रिय होता है इसके पीछे की मुख्य वजह शिक्षक का शिक्षण प्रक्रिया के दौरान कक्षा में विद्यार्थियों पर छोड़ा गया प्रभाव है प्रभावी शिक्षण से ही कोई शिक्षक में लोकप्रिय बना पाता है इसे ही विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास का रास्ता प्रशस्त होता है।
क्लर्क के अनुसार
शिक्षक वह प्रक्रिया है जो विद्यार्थी के व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिए नियोजित तथा संचालित की जाती है। शिक्षक यह सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार है कि सभी विद्यार्थियों को सिखाने में पूरी तरह से भाग लेने के लिए अवसर और सहायता मिले। ऐसा तभी संभव होगा यदि संसाधनों का प्रबंध प्रभावी ढंग से और सीखने की प्रक्रिया को सुधारने के स्पष्ट प्रयोजन के साथ किया जाए शिक्षक को विद्यालय सांसद के रूप में मानव संसाधन जैसे साथी शिक्षक अन्य स्टाफ विद्यार्थी माता-पिता और समुदाय शाला प्रबंधन समिति के सदस्यों में सक्रिय व सकारात्मक समन्वय हो तो सीखने का समर्थन करने के लिए कौशलों और ज्ञान का योगदान कर सकेंगे।
विषय वस्तु के प्रति बिंदुओं को विद्यार्थी तक पहुंचाने के लिए बाल मनोविज्ञान पारक करके शिक्षण कार्य किया जाना चाहिए।
विषयों को बोधगम में बनाकर प्रस्तुत करना चाहिए यह शिक्षक की महत्वपूर्ण विशेषता है।
विद्यार्थी जिस तरीके से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए नया ज्ञान आचरण और कौशलों को समाहित करता है उसे उन्हें दिशा निर्देशों के अनुसार अध्ययन करवाना चाहिए।
पिछली सदी के दौरान शिक्षक पर विभिन्न किस्म के दृष्टिकोण उब्रें हैं। इनमें एक है ज्ञानात्मक शिक्षक जो शिक्षक को मस्तिष्क की एक क्रिया के रूप में देखा है।
दूसरा रचनात्मक शिक्षक जो ज्ञान को सीखने की प्रक्रिया में की गई रचना के रूप में देखा है।
ज्ञानात्मक शैली हमारी शिक्षण बुद्धि का एकाधिक स्वरूप और ऐसा क्षण जो उन विद्यार्थियों के काम आ सके जिन्हें इसकी विशेष जरूरत है और जो अलग-अलग पारिवारिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से आते हैं उनके लिए उपयोगी है।
रचनात्मक शिक्षक की एक ऐसी रणनीति है जिसमें विद्यार्थी के पूर्व ज्ञान आस्थाओं और कौशल का इस्तेमाल किया जाता है। रचनात्मक रणनीति के माध्यम से विद्यार्थी अपने पूर्व ज्ञान और सूचना के आधार पर नई किस्म की समझ विकसित करता है। इससे विद्यार्थी को स्वयं जवाब खोजने के अधिक अवसर मिलते हैं और शिक्षक विद्यार्थियों के जवाब तलाश में की प्रक्रिया का निरीक्षण करता है उन्हें निर्देशित करता है तथा सोचने समझने के नए तरीकों का सूत्रपात करता है धीरे-धीरे छात्र यह समझने लगता है कि शिक्षक दरअसल ज्ञानात्मक प्रक्रिया है इस किस्म की शैली हर उम्र के छात्र के लिए कारगर है।
शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को सहज सरल तथा सक्षम बनाने के लिए नवीन पद्धतियों को अपनाना आवश्यक है जिनमें से कुछ निम्न प्रकार हैं
- स्थानीय परिवेश के अनुसार शिक्षक होना चाहिए।
- विद्यार्थियों की सांस्कृतिक पारिवारिक स्थिति का ज्ञान शिक्षक को होना चाहिए।
- स्थानीय टीएम होना चाहिए।
- उचित समूह है निर्माण होना चाहिए।
प्रभावशाली शिक्षक की संरचना
सामान्यतः जब शिक्षक और छात्र में पाठ्यवस्तु के माध्यम से अंत क्रिया होती है तो उसे शिक्षक की संज्ञा प्रदान कर दी जाती है। इसलिए शिक्षक को त्रिपक्षीय प्रक्रिया भी कहा जाता है अर्थात इसमें एक शिक्षक विद्यार्थी और पाठ्यचर्या यह त्रिपक्षीय प्रक्रिया है। किंतु प्रभावशाली शिक्षक वह होता है जिससे छात्रों के सभी पक्षों को समुचित विकास हो तथा अधिकतम अधिगम हो सके। इसके लिए शिक्षक को कई तरह की शिक्षक क्रियाएं करनी होती है। इन शिक्षक क्रियो को भी तीन पक्षों में व्यक्त किया जाता है।
इसकी संरचना के तीन प्रमुख पक्ष होते हैं:-
- शिक्षण में संकेत एवं चिन्ह।
- शिक्षक की भाषा विज्ञान प्रक्रिया।
- शिक्षक का तर्क।
प्रभावशाली शिक्षक की प्रमुख समस्याएं
- बड़ी कक्षाओं की समस्या।
- सामूहिक कार्य की समस्या।
- स्वाध्याय एवं आवश्यक कौशलों के विकास की समस्या।
- विद्यालय के पुस्तकालय के प्रयोग की समस्या।
- श्रेणी रहित विद्यालय।
- समूह शिक्षण।
- विषय के एक समूह का समय खंड शिक्षक।
- सामूहिक वार्ता एवं अन्य क्रियाकलापों का आयोजन।
- गृह कार्य।
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