मापन मूल्यांकन और आकलन में अंतर

मापन मूल्यांकन और आकलन में अंतर:-

            



मापन मूल्यांकन और आकलन में अंतर
मापन मूल्यांकन और आकलन में अंतर



मापन मूल्यांकन और आकलन में अंतर

• आकलन प्रक्रिया केंद्रित होता है जबकि मापन पाठ्यवस्तु केंद्रित होता है। और मूल्यांकन परिणाम केंद्रित होता है।

• आकलन मापन का सूक्ष्म रूप है। और मापन मूल्यांकन का सूक्ष्म रूप है मूल्यांकन का क्षेत्र व्यापक होता है इसके अंतर्गत मापन और आकलन दोनों समाहित होते हैं।

• आकलन के द्वारा सूचना प्राप्त करने के लिए साधनों का प्रयोग किया जाता है। जबकि मापन के द्वारा केवल सूचनाओं का संग्रहण किया जाता है और मूल्यांकन सूचनाओं का क्रमबद्ध संग्रहण है जिसके द्वारा निर्णय लिए जाते हैं

•  आकलन द्वारा उद्देश्य प्राप्ति के साधन प्रयोग किए जाते हैं जबकि मापन के द्वारा कितने उद्देश्य प्राप्त हुए हैं इसकी जानकारी होती है। और मूल्यांकन द्वारा उद्देश्य की पूर्ति किस सीमा तक हुई है यह ज्ञात होता है।

•  आकलन का क्षेत्र अत्यंत सीमित होता है जबकि मापन का क्षेत्र आकलन से व्यापक किंतु मूल्यांकन की अपेक्षा सीमित होता है और मूल्यांकन का क्षेत्र व्यापक होता है यह छात्र के संपूर्ण व्यक्तित्व के संबंध के मूल्य का अंकन करता है।


• आकलन से अधिगम उद्देश्य से जोड़ा जा सकता है इसकी अभिव्यक्ति अभ्यास के रूप में होती है। जबकि मापन में अधिगम उद्देश्यों में सुधार संभव है। और मूल्यांकन सुधार के बाद का परिवर्तित रूप है।


• आकलन के द्वारा चयन संग्रहण किया जाता है जबकि मापन के द्वारा चयन व संग्रहण के आधार पर अंक प्रदान किए जाते हैं। और मूल्यांकन में अंक प्रदान के बाद मूल्यों का निर्धारण किया जाता है।


•  आकलन के द्वारा भविष्यवाणी के विषय में केवल अनुमान लगाया जा सकता है। जबकि मापन के द्वारा सार्थक भविष्यवाणी संभव नहीं है। और मूल्यांकन परिणामों के आधार पर छात्र के संबंध में पूर्ण सार्थकता के साथ भविष्यवाणी की जा सकती है। 



•  आकलन की प्रकृति अत्यंत लचीली होती है। जबकि मापन की प्रकृति आकलन की अपेक्षा कम लचीली होती है। और मूल्यांकन प्रकृति लचीली न होकर स्थिर होती है। 


•  आकलन द्वारा व्यक्तिगत आकलन किया जाता है। जबकि मापन द्वारा अलग-अलग व्यक्तियों या उनके सील गुणों का मापन संभव है। और मूल्यांकन के द्वारा व्यक्ति का तुलनात्मक अध्ययन संभव है।


•  आकलन रचनात्मक होता है जबकि मापन परिणाम आत्मक और मूल्यांकन योगात्मक होता है।


मापन

किसी वस्तु या व्यक्ति के गुण व विशेषताओं का संख्यात्मक, मात्रात्मक या अंकआत्मक रूप देने की प्रक्रिया मापन कहलाती है।  

इस क्रिया में किसी वस्तु के गुण को उचित इकाई के रूप में प्रकट किया जाता है।



मापन का अर्थ
किसी भी व्यक्ति या वस्तु के गुण को अंकात्मक रूप देने की प्रक्रिया मापन कहलाती है। अर्थात संख्यात्मक रूप देना मापन होता है। 

उदाहरण के लिए किसी भी वस्तु की ऊंचाई को किलोमीटर मीटर आदि का रूप प्रदान करना।

नोट:- किसी भी वस्तु का परिणामआत्मक अंक ही मापन होता है।



मापन की परिभाषा


वैज्ञानिक       हेलमस्टेडलर      के   अनुसार

मापन       को       किसी       व्यक्ति      या
 
पदार्थ          में        निहित    विशेषताओं  के     आंकिक

वर्णन       की        प्रक्रिया     के       रूप

 में      परिभाषित     किया     जाता है।

SS स्टीवंस के अनुसार


मापन        किसी      निश्चित      स्वीकृत

 नियमों       के       अनुसार       वस्तुओं

 को       अंक      प्रदान      करने      की    

प्रक्रिया है।



निष्कर्ष        रूप      में       कह      सकते   

हैं     कि       मापन         प्रक्रिया      विभिन्न 

निरीक्षणओ        वस्तु      एवं         घटनाओं

 को       विशिष्ट     नियमों         के    अनुसार 

सार्थक      व     संगत     रूप    से     संकेत 

चिन्ह      अथवा      आंकक      संकेत    प्रदान 

करने     की     क्रिया      है।


मापन के प्रकार

  1. भौतिक मापन। 
  2. मानसिक मापन।

भौतिक मापन
भौतिक मापन में लंबाई ऊंचाई दूरी आदि का मापन होता है। इस मापन में एक 0 बिंदु होता है। जहां से इसे प्रारंभ किया जाता है।

मानसिक मापन
इसमें मानसिक गुण या मानसिक क्रियाएं जैसे बुड्ढी शैक्षणिक सामाजिक आदि होती है। 

इसमें कोई शून्य बिंदु नहीं होता।



मापन की आवश्यकता तत्व

  1. गुणों की पहचान व व्याख्या करना। 
  2. गुण की कार्यकारी परिभाषा करना। 
  3. गुण को इकाइयों के रूप में व्यक्त करना।


मापन की विशेषताएं
  1. मापन वस्तुनिष्ठ होता है। 
  2. इसमें वैज्ञानिकता का समावेश होता है। 
  3. इसमें उपकरणों का प्रयोग होता है। 
  4. इसमें इकाइयों का प्रयोग होता है। जैसे लंबाई के लिए मी 
  5. मापन मूल्यांकन में सहायता करता है। 
  6. मापन किसी भी वस्तु का आंशिक वर्णन शुद्ध रूप में करता है।  
  7. मापन पाठ्यवस्तु केंद्रित होता है। 
  8. मापन मात्रात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करता है।


मापन   में    व्यक्ति    के      गुणों     एवं     व्यवहारों      का

 संख्यात्मक     विवरण     रहता    है    जो    निम्न   प्रकार है

 या   विशेषता


•  वस्तुनिष्ठ    एवं      वैज्ञानिक    विधि। 


•  उपकरणों     का      प्रयोग।


 •  निश्चित     इकाइयों     का    प्रयोग।


 •   मूल्यांकन     में      सहायक।


 •  किसी     वस्तु   का   आंकिक    वर्णन शुद्ध रूप में। 


•  पाठ्यवस्तु केंद्रित। 


•   परिणामों की मात्रात्मक रूप में अभिव्यक्ति।



मापन के स्तर


a)नामित मापन


इसमें व्यक्तियों अथवा वस्तुओं को उनके किसी गुण अथवा विशेषता के प्रकार के आधार पर कुछ वर्गों समूहों में विभक्त कर दिया जाता है इन वर्गों में किसी भी प्रकार का कोई अंतर्निहित कर्म अथवा संबंध नहीं होता है। प्रत्येक वर्ग गुण अथवा विशेषता के किसी एक प्रकार को व्यक्त करता है। इसमें गणितीय संक्रियाएं संभव नहीं है।


b) क्रमित मापन


यह नामित मापन से कुछ अधिक परिमार्जित होता है इस प्रकार के मापन में व्यक्तियों तथा वस्तुओं को उनके किसी गुण की मात्रा के आधार पर कुछ ऐसे वर्गों में विभक्त कर दिया जाता है जिनमें एक स्पष्ट अंतर्निहित कर्म निहित होता है। इसमें भी गणितीय संक्रियाएं संभव नहीं है।

c) अंतरित मापन


यह नामित व क्रमिक मापन से अधिक परिमार्जित होता है। अंतरित मापन गुण की मात्रा अथवा परिमाण पर आधारित होता है इस प्रकार के मापन में व्यक्तियों अथवा वस्तुओं में विद्यमान गुण की मात्रा को इस प्रकार की इकाइयों के द्वारा व्यक्त किया जाता है कि किन्ही दो लगातार इकाइयों में अंतर समान रहता है जैसे छात्रों को उनकी गणित योग्यता के आधार पर अंक प्रदान करना। इस स्तर के मापन में परम शून्य जैसे गुण विनीता को व्यक्त करने वाला कोई बिंदु नहीं होता है।



d) अनुपातिक मापन

यह मापन सर्वाधिक परिमार्जित स्तर का मापन है। इस प्रकार के मापन में सभी गुणों के साथ-साथ परम शून्य या वास्तविक शून्य की संकल्पना निहित रहती है। अनुमापन में प्राप्त मतों की आनुपातिक तुल्यता है। इस मापन द्वारा प्रयुक्त मापन परिणामों को अनुपात के रूप में व्यक्त कर सकते हैं। इसमें सभी गणितीय संक्रियाएं संभव हो सकती हैं।




 




मूल्यांकन

मूल्यांकन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें माँपित मूल्य का अवलोकन कर उसकी उपयोगिता या मूल्य का निर्धारण किया जाता है।


डांडेकर के अनुसार


मूल्यांकन हमें यह बताता है कि बालक ने किस सीमा तक किन उद्देश्यों को प्राप्त किया है।


नॉर्मन ई ग्रीनलुड के अनुसार


मूल्यांकन को छात्रों के द्वारा प्राप्त किए गए शिक्षा उद्देश्य की सीमा को ज्ञात करने की क्रमबद्ध प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।


NCRT के अनुसार  

मूल्यांकन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा यह ज्ञात किया जाता है कि उद्देश्य किस सीमा तक प्राप्त किए गए हैं। कक्षा में दिए गए अधिगम अनुभव कहां तक प्रभावशाली सिद्ध हुए हैं और कहां तक शिक्षा के उद्देश्य पूर्ण किए गए हैं।

इन तीनों परिभाषा ओं के आधार पर कहा जा सकता है कि मूल्यांकन एक क्रमबद्ध प्रक्रिया है यह नियमित एवं नियंत्रित अवलोकन करने पर आधारित है। मूल्यांकन के लिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि शैक्षिक उद्देश्य अथवा अपेक्षित व्यवहार गत परिवर्तन को पहले से ही निर्धारित कर दिया जाए इसके अभाव में उद्देश्यों की प्राप्ति के संबंध में कोई अनुमान लगा पाना।


 टोरगेर्सन के अनुसार


मूल्यांकन का अर्थ है कि किसी वस्तु अथवा क्रिया का मूल्य निश्चित करना। शिक्षा मे मूल्यांकन का तात्पर्य शिक्षण प्रक्रिया तथा सीखने की क्रियाओं से प्राप्त छात्र उपलब्धि तथा अनुभव का मूल्य निश्चित करना है। मूल्यांकन इस बात का संकेत करता है कि संपूर्ण शिक्षण प्रक्रिया इस दृष्टि से कितनी प्रभावशाली सिद्ध हुई है।


मूल्यांकन की प्रक्रिया

B. S bloom  ने बताया कि मूल्यांकन की प्रक्रिया तीन स्तंभों की है।








डॉक्टर पटेल ने बताया कि मूल्यांकन की प्रक्रिया चार चरण की है  जो निम्न प्रकार है






मूल्यांकन के चरण या सोपान

1 .शैक्षिक  उद्देश्य का निर्धारण।

2.  अधिगम अनुभव प्रदान करना।

A  विषय वस्तु का चयन करना।

B   अधिगम क्रियाओं का निर्धारण।

3.   व्यवहार परिवर्तन के आधार पर मूल्यांकन।



मूल्यांकन का उद्देश्य या आवश्यकता या महत्व


  1. शिक्षण उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक।
  2. भविष्यवाणी या पूर्वक कथन करना। 
  3. शिक्षण विधियों की उचित विधि यो के चुनाव हेतु।
  4. छात्रों की कमजोरियों को जानकर उपयुक्त उपचार प्रदान करना।
  5. पृष्ठ पोषण प्रदान करने हेतु। 
  6. व्यक्तिगत मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु। 
  7. माता-पिता को छात्र की प्रगति की जानकारी प्रदान करने हेतु।
  8. छात्रों की उन्नति में सहायक। 
  9. शैक्षिक व्यवसायिक मार्गदर्शन में सहायक। 
  10. छात्रों के वर्गीकरण में सहायक। 
  11. तुलनात्मक अध्ययन करने हेतु।
  12. शिक्षक के मूल्यांकन में सहायक।



मूल्यांकन की विशेषताएं

  1. ज्ञान की जांच एवं विकास की जानकारी। 
  2. अधिगम की प्रेरणा।
  3. व्यक्तिगत भिन्नताओं की जानकारी। 
  4. निदान। 
  5. शिक्षक की प्रभावशीलता ज्ञात करना। 
  6. पाठ्यक्रम में सुधार। चयन। 
  7. शिक्षण सहायक सामग्री की उपाध्ययिता की जानकारी।  
  8. वर्गीकरण। 
  9. निर्देशन। 
  10. शिक्षण विधियां का उचित चुनाव। 
  11. पृष्ठ पोषण प्रदान करने हेतु। 
  12. व्यक्तिगत मार्गदर्शन प्रदान करना। 
  13. या निर्देशन परामर्श देना। 
  14. छात्रों की पदोन्नति करना। 
  15. छात्रों की प्रगति की जानकारी प्रदान करना। 
  16. शिक्षक का मूल्यांकन करना। 
  17. तुलनात्मक अध्ययन करने हेतु। 
  18. अनुसंधान में सहायक।


मापन और मूल्यांकन में अंतर

मापन का क्षेत्र सीमित होता है। जब की मूल्यांकन में संपूर्ण क्षेत्र का अध्ययन होता है।

मापन में साक्षी एकत्रित किए जाते हैं। जब की मूल्यांकन में साक्ष्यप के आधार पर निर्णय लिया जाता है।

मापन पाठ्यवस्तु पर केंद्रित होता है। जबकि मूल्यांकन उद्देश्य केंद्रित होता है।

मापन में संख्यात्मक या मात्रात्मक निरीक्षण होता है। लेकिन मूल्यांकन में गुणात्मक निरीक्षण भी होता है।

मापन में काम समय वह कम श्रम लगता है। जब की मूल्यांकन में अधिक श्रम व अधिक समय लगता है क्योंकि इसमें संपूर्ण क्षेत्र को लिया जाता है।

मापन में किसी भी विद्यार्थी के संबंध में स्पष्ट धारणा प्रकट नहीं की जा सकती है। जब की मूल्यांकन में विद्यार्थी या व्यक्ति की वर्तमान स्थिति के आधार पर भविष्यवाणी की जा सकती है।

मापन किसी भी समय किया जा सकता है। जबकि मूल्यांकन निरंतर वह सतत चलने वाली प्रक्रिया है।


आकलन  का अर्थ

आकलन शब्द की उत्पत्ति लेटिन भाषा के ad sedere शब्द से हुई जिसका अर्थ है to sit beside जिसका हिंदी रूपांतरण पास में बैठने से है।

मध्यकालीन लेटिन समुदाय में जज के सहायक का कार्य टेक्स्ट निर्धारित करने के उद्देश्य से किसी की संपत्ति का अनुमान लगाना होता था। 

बाद में शब्द का अर्थ परिवर्तित होकर किसी व्यक्ति विचार आदि के बारे में निर्णय लेना हो गया।

सामान्य अर्थों में आकलन का अर्थ है किसी व्यक्ति या समूह से संबंधित सूचना संग्रहण की प्रक्रिया ताकि व्यक्ति या समूह विशेष के संदर्भ में कोई निर्णय लिया जा सके।







आकलन की परिभाषा

 "शब्दकोश के अनुसार आकलन का तात्पर्य किसी चीज की कीमत गुणवत्ता वैल्यू या महत्व का निर्णय अथवा निर्धारण करना है।"


वालेस ,लॉर्सन व एलेक्शनीन


आकलन का तात्पर्य किसी व्यक्ति या समूह के बारे में सूचना संग्रहण विश्लेषण एवं उनका अर्थ निकालने की प्रक्रिया से है जिससे किसी व्यक्ति के बारे में अनुदेशनआत्मक निर्देशनआत्मक अथवा प्रशासनिक निर्णय लिया जा सकता है।

आकलन का अर्थ उद्देश्य पूर्ण क्रियाओं द्वारा सूचना संग्रह एवं विस्थापन की प्रक्रिया से हैं ताकि शिक्षण अधिगम एवं विभिन्न व्यक्तियों के संदर्भ में उनका अर्थ निकाला जा सके और     में निर्धारित मानदंडों से उसकी तुलना की जा सके।

इरविन के अनुसार
आकलन छात्रों के अधिगम एवं विकास का व्यवस्थित आधार का अनुमान है। यह किसी भी वस्तु को परिभाषित कर चयन रचना संग्रहण विश्लेषण व्याख्या तथा सूचनाओं का प्रयुक्त प्रयोग कर छात्र विकास तथा अधिगम को बढ़ाने की प्रक्रिया है।


आकलन की आवश्यकता एवं महत्व


विद्यार्थियों में आतम समझ विकसित करने एवं अपनी क्षमताओं को समझने में सहायक। 

विद्यार्थियों के लिए अभिप्रेरणा का कार्य करता है।

 अधिगम उद्देश्यों की प्राप्ति की जानकारी एवं उनके मूल्यों में सहायक। 

प्रभावी शिक्षण अधिगम के लिए उपयुक्त शिक्षण सामग्री एवं विधि के चयन में सहायक।

 संपूर्ण शिक्षण अधिगम की गुणवत्ता को उन्नत बनाने में सहायक। छात्रों की रुचि योग्यता एवं छुपी प्रतिभा का अध्ययन करने में सहायक।

 नैदानिक शिक्षण की योजना बनाने में सहायक। 

विद्यार्थियों के मार्गदर्शन में परामर्श में सहायक।

आकलन के आयाम


1)  उद्देश्य पूर्ण कार्य है।

2)  सूचनाओं का संग्रहण होता है। 

3)  सूचना विश्लेषण।

 4) सूचना का अर्थ निकालना। 

5)  निर्णय लेकर सुधार संबंधी निर्देश।



आकलन के उद्देश्य

1)अनुदेशन से पूर्व


विद्यार्थी के पूर्व ज्ञान को जानने के लिए। 

अधिगम की कठिनाइयों अथवा अग्रिम ज्ञान को जानने के लिए।

 अनुदेशन की योजना बनाने के लिए।


2) शिक्षण के दौरान

अनुदेशन की प्रभाविता को जानने के लिए। 

अधिगम के दौरान विद्यार्थी की समस्याओं को जानने के लिए।

 शिक्षण के बारे में प्रतिपुष्टि प्राप्त करने के लिए।

3) शिक्षण के उपरांत उद्देश्य  


शैक्षिक संप्राप्ति के प्रमाण के लिए

विद्यार्थियों के शैक्षिक संप्राप्ति के आधार पर ग्रेड प्रदान करने के लिए

संपूर्ण शिक्षण की प्रभावशीलता जानने के लिए

शिक्षक के स्व मूल्यांकन के लिए।


आकलन के पहलू

  1. उद्देश्य पूर्ण क्रिया।
  2. सूचना का संग्रहण। 
  3. सूचनाओं का विश्लेषण। 
  4. सूचनाओं की व्याख्या। 
  5. निर्देशात्मक निर्णय।








Unit- 2


मूल्यांकन के प्रकार

उद्देश्य के आधार पर आकलन का वर्गीकरण


  1. पूर्व सूचक आकलन। 
  2. रचनात्मक आकलन। 
  3. योगात्मक आकलन। 
  4. निदानात्मक आकलन।

योकम व सिंपसन के अनुसार

निदान आत्मक आकलन वह साधन है जो शिक्षा मनोवैज्ञानिक को के द्वारा छात्रों की कठिनाइयों को ज्ञात करने और यथा संभव उन कठिनाइयों के कर्म को व्यक्त करने के लिए किया जाता है।

 
संज्ञानात्मक अधिगम का मूल्यांकन

संज्ञान से तात्पर्य:- सूचना संसाधन समृद्धि एवं प्रत्यक्षण की मानसिक प्रक्रियाओं से होता है। जिसके सहारे व्यक्ति ज्ञान की प्राप्ति करता है। व्यक्ति अपने ज्ञान को कैसे ग्रहण करता है। तथा संचित करता है। और उसका पुन स्मरण करता है। तथा उपयोग करता है। आदि सभी मानसिक क्रियाएं संज्ञान में सम्मिलित होती है।

अधिगम का अर्थ:-

सीखना या व्यवहार में परिवर्तन होना। इस प्रकार संज्ञानात्मक अधिगम से तात्पर्य व्यक्ति की मानसिक क्रियो को सीखने से है।

दूसरे शब्दों में संज्ञानात्मक  अधिगम बौद्धिक विकास व ज्ञान अर्जित करने की समस्त प्रक्रियाओं पर आधारित होता है। जन्म से लेकर अब तक अनेक संवेदनाओं को ग्रहण करते हुए अपने तर्क चिंतन व समृद्धि के आधार पर सिखाना ही संज्ञानात्मक अधिगम कहलाता है।



संज्ञानात्मक अधिगम के प्रकार
संज्ञानात्मक अधिगम के तीन प्रकार होते हैं:-

  1. प्रत्यक्ष आत्मक अधिगम। 
  2. प्रत्यात्मक अधिगम। 
  3. सहचर्यात्मक अधिगम।
 प्रत्यक्ष आत्मक अधिगम
इसमें  वस्तुओं को देखकर छूकर या सुनकर सीखना प्रत्यक्षआत्मक अधिगम है।  अर्थात इसमें संसार की भौतिक वस्तुओं से सीखना आता है।  इसका संबंध है ID से होता हैं।

प्रत्यात्मक अधिगम

किसी भी वस्तु के बारे में ए मूरत चिंतन कल्पना या तर्क भी तर्क के आधार पर सीखना प्रत्यनात्मक अधिगम कहलाता है। यह किशोरावस्था की विशेषता है। तथा इसका संबंध ego से होता हैं।

सहचार्य आत्मक अधिगम


समाज अधिगम परिस्थितियों में एक अधिगम प्रक्रिया के साथ दूसरे अधिगम को भी जोड़ा जा सकता है। अर्थात पहले से सीखे गए अनुभव या ज्ञान के आधार पर अन्य ज्ञान सीखना।

जैसे थार्नडाइक के प्रयोग में भूखे बिल्ली का यदि खाना उधर रख दिया जाए तो बिल्ली को खड़ा रहना सीख जा सकता है।

जीन पियाजे का संज्ञानात्मक विकास सिद्धांत
यह सिद्धांत ज्ञान की प्रकृति के बारे में बताता है कि मानव कैसे ज्ञान को अर्जित करता है। कैसे एक-एक जोड़ता है एवं इसका उपयोग करता है। व्यक्ति वातावरण के तत्वों का प्रत्यक्षीकरण करता है। अर्थात पहचान एवं प्रतिक की सहायता से उन्हें समझना एवं संबंधित वस्तु या व्यक्ति के संदर्भ में अमूर्त चिंतन करता है। इन सभी से व्यक्ति में संज्ञानात्मक विकास होता है।

व्यक्ति द्वारा वातावरण में उपस्थित किसी भी प्रकार के उद्दीपकों को पहचानना ग्रहण करना और उसकी व्याख्या करना ही संज्ञानात्मक विकास सिद्धांत है।

प्याज के अनुसार ज्ञान के विकास का स्वरूप परिवर्तित होता है। जो अलग अलग अवस्थाओं में है।

  1. संवेदीय पेशीय अवस्था
  2. पूर्व संक्रियात्मक या पराग संक्रिया अवस्था। 
  3. मुर्त संक्रिया अवस्था। 
  4. औपचारिक क्रिया अवस्था।

चिंतन कौशल

मोहसिन के अनुसार
चिंतन समस्या समाधान का एक आंतरिक व्यवहार है।

सिल्भर मैन के अनुसार

चिंतन एक ऐसी मानसिक प्रक्रिया है जो हमको उद्दीपक तथा मानसिक घटनाओं या समस्याओं के समाधान में सहायता करती है।

इस प्रकार चिंतन एक ऐसी प्रक्रिया है जो किसी उद्दीपक तथा घटनाओं और समस्या के मध्य में घटित है। इस प्रकार चिंतन की प्रक्रिया में किसी न किसी समस्या का समाधान होता है।

चिंतन की विशेषता

समस्या का होना। 
विभिन्न पहलुओं का समायोजन। 
गत अनुभूति होना या पिछले अनुभव। 
प्रत्येक एवं भूल। 
प्रतिको का प्रयोग होना।

चिंतन के प्रकार
चिंतन के तीन प्रकार होते हैं जो निम्न है पूर्ण:-

  1. अभिसारी या केंद्रित चिंतन। 
  2. अपसारी या विकेंद्रित चिंतन। 
  3. आलोचनात्मक चिंतन।

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