शिक्षण प्रतिमान :
शिक्षण प्रतिमान आंग्ल भाषा के टीचिंग मॉडल का हिंदी रूपांतरण है। प्रतिमान का अर्थ है किसी उद्देश्य के अनुसार व्यवहार में परिवर्तन लाने की प्रक्रिया।
प्रतिमान शिक्षण सिद्धान्तों के प्रतिपादन में आधार का कार्य करते हैं। इस प्रकार शिक्षण सिद्धान्त के लिये प्रतिमान परिकल्पना का कार्य करते हैं। शिक्षण प्रतिमान एक विस्तृत रूप देता है जिसमें उसमें पाठ्यक्रम, स्त्रोत, शिक्षण तथा अधिगम को प्रभावशाली ढंग से वर्णित किया जाता है, अर्थात
शिक्षण प्रतिमान = पाठ्यक्रम + साधन + शिक्षण + सीखना
अतः शिक्षण प्रतिमान में उसके पाठ्यक्रम,स्त्रोत, शिक्षण तथा अधिगम को कलात्मक एवं विस्तृत रूप प्रदान करता है।
शिक्षण प्रतिमान की परिभाषाएँ -
एच.सी. वील्ड के अनुसार - “प्रतिमान का अर्थ किसी रूप-रेखा तथा उद्देश्य के अनुसार व्यवहार को ढालने की प्रक्रिया प्रतिमान कहलाती है।"
हाइमैन के अनुसार - “प्रतिमान शिक्षण के सम्बन्ध में विचार करने तथा सोचने की एक रीति है जिसमें उसके निश्चित तथ्यों को संगठित, विभाजित तथा तर्क संगत व्याख्या के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।”
क्रान बैक तथा गैगने के अनुसार- “शिक्षण प्रतिमानों का विकास सीखने के सिद्धान्तों को दृष्टि में रखते हुए किया जाता है जिससे इनके प्रयोग द्वारा शिक्षण के सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया जा सके।”
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि शिक्षण-प्रतिमान शिक्षण प्रक्रिया में पूर्व निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु शिक्षण द्वारा सम्पादित विभिन्न क्रियाओं विधियों,एवं प्रविधियों युक्त एक गतिशील एवं सुनियोजित बहुमुखी प्रक्रिया है।
शिक्षण प्रतिमानों में 6 क्रियाएं निहित होती हैं-
(1) सीखने की निष्पत्ति को व्यवहारिक रूप देना।
(2) ऐसे उद्दीपन का चयन करना जिनसे कि विद्यार्थी अपेक्षित अनुक्रिया कर सकें।
(3) ऐसे मानदण्ड व्यवहार का निर्धारण करना जिससे विद्यार्थियों की निष्पत्ति को देखा जा सके।
(4) ऐसी परिस्थितियों का विशिष्टीकरण करना जिनमें विद्यार्थियों को अनुक्रियाओं को देखा जा सके।
(5) कक्षागत परिस्थितियों में अन्त प्रक्रिया का विश्लेषण करके वांछित शैक्षिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये विशेष युक्तियों का विशिष्टीकरण करना।
(6) यदि विद्यार्थियों में अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन न हो तो नीतियों तथा युक्तियों में सुधार करना।
शिक्षण प्रतिमान की अवधारणायें :
(1) सीखने के लिये उपयुक्त वातावरण का निर्माण करना है।
(2) पाठ्यवस्तु तथा कौशल, अनुदेशन का कार्य करती है जिसके द्वारा छात्रों तथा शिक्षक के मध्य अन्त प्रक्रिया होती है।
(3) शिक्षण को सरल, स्पष्ट तथा बोध्यगम्य बनाने के लिये उपयुक्त नीतियों तथा युक्तियों का प्रयोग करना।
(4) प्रत्येक शिक्षण प्रतिमान वातावरण के निर्माण करने हेतु रूप-रेखा का कार्य करता है।
शिक्षण प्रतिमान की विशेषतायें :
(1) उपयुक्त अनुभव प्रदान करना- शिक्षण प्रतिमान को पहली विशेषता यह है कि वह शिक्षक तथा विद्यार्थी दोनों को उपयुक्त अनुभव प्रदान करता है।
(2) मौलिक प्रश्नों का उत्तर- शिक्षण प्रतिमान की दूसरी विशेषता है कि इसमें सभी मौलिक प्रश्नों का उत्तर मिल जाता है। उदाहरण -
(अ) शिक्षक किस प्रकार का व्यवहार करता है?
(ब) वह ऐसा क्यों करता है तथा उसका विद्यार्थियों पर क्या प्रभाव पड़ेगा? आदि।
(3) वैयक्तिक विभिन्ता पर आधारित- शिक्षण प्रतिमान की तीसरी विशेषता है कि इसका निर्माण वैयक्तिक विभिन्नता के आधार पर विभिन्न धारणाओं के अनुसार होता है। जैसे- शिक्षक रटन-स्मृति या प्रत्ययों को महत्व देते हुये शिक्षण के अलग-अलग प्रतिमानों का निर्माण करता है।
(4) विद्यार्थियों की रुचि का उपयोग- शिक्षण प्रतिमान की चौथी विशेषता है कि इसमें विद्यार्थियों की रुचि का उपयोग किया जाता है।
(5) दर्शन से प्रभावित- शिक्षक जिस दर्शन का अनुयायी होता है वह उसी के अनुसार विद्यार्थियों के व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिये वैसे ही शिक्षण प्रतिमानों का निर्माण करता है जैसे - आदर्शवादी शिक्षक विद्यार्थियों को आदर्शवादी बनाने के लिये प्रतिमानों का निर्माण करता है।
(6) शिक्षण सूत्र- शिक्षण सूत्र प्रत्येक शिक्षण प्रतिमान के आधार का कार्य करते हैं जिससे विद्यार्थियों में उन शक्तियों को विकसित किया जाए जो व्यक्तित्व को संगठित करती है।
(7) अभ्यास तथा साधन- शिक्षण प्रतिमान मानव योग्यता में विकास करके शिक्षक की सामाजिक क्षमता में वृद्धि करता है।
(8) मानव योग्यता का विकास- शिक्षण प्रतिमान मानव योग्यता में विकास करके शिक्षण की सामाजिक क्षमता में वृद्धि करता है।
(9) शिक्षण एक कला के रूप में- ये शिक्षण की कला को बढ़ावा देते हैं जो सीखने से आती है।
(10) शिक्षक के व्यक्तित्व की गुणात्मक उन्नति- शिक्षण प्रतिमानों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये शिक्षक के व्यक्तित्व की गुणात्मक उन्नति करते हैं।
शिक्षण प्रतिमान की उपयोगिता या महत्व :
(1) शिक्षण प्रतिमान विद्यालयों की शिक्षण व्यवस्था में विशिष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये सहायता प्रदान करता है।
(2) इसके द्वारा शिक्षण को अधिक सार्थक तथा प्रभावशाली बनाया जा सकता है।
(3) शिक्षण में विशिष्ट प्रतिमानों को प्रयुक्त किया जा सकता है।
(4) शिक्षण प्रतिमानों को सामाजिक, व्यक्तिगत, ज्ञानात्मक तथा व्यवहारिक पक्षों के विकास के लिये विकसित किया जाता है।
(5) शिक्षण प्रतिमान शिक्षण प्रक्रिया में शोध कार्य के लिये विशाल क्षेत्र प्रस्तुत करते हैं।
(6) शिक्षण प्रतिमान के अन्तर्गत ऐसी उपयुक्त नीतियों व उद्दीपनों का प्रयोग किया जाता है जिनके द्वारा विद्यार्थियों के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन हो जाएं।
(7) शिक्षण तथा अधिगम क्रियाओं के सम्बन्ध में विभिन्न परिस्थितियों का भली प्रकार अध्ययन किया जा सकता है।
(8) भारतीय परिस्थितियों में कक्षा शिक्षण की समस्या के समाधान के लिये शिक्षण प्रतिमानों को विकसित किया जा सकता है।
(9) मनोवैज्ञानिक शक्तियों का शिक्षण में प्रभावशाली रूप से प्रयोग करके नवीन प्रतिमानों का विकास किया जा सकता है।
(10) शिक्षण प्रतिमान का एक महत्वपूर्ण कार्य विद्यार्थियों के व्यवहार का मल्यांकन करना है जिसके लिये वह विशेष मानदण्ड प्रस्तुत करता है।
शिक्षण प्रतिमान के मौलिक तत्व :
शिक्षण प्रतिमान के निम्न चार मौलिक तत्व होते हैं -
(1) उद्देश्य
(2) संरचना
(3) सामाजिक प्रणाली
(4) मूल्यांकन प्रणाली
(1) उद्देश्य- शिक्षण के लक्ष्य तथा उद्देश्य ही शिक्षण प्रतिमान के उद्देश्य को निर्धारित करते हैं। शिक्षण प्रतिमान का उद्देश्य ही केन्द्र बिन्दु माना जाता है।
(2) संरचना- शिक्षण प्रतिमान की संरचना में शिक्षण सोपान की व्याख्या की जाती है। इसके अन्तर्गत शिक्षण क्रियाओं तथा युक्तियों की व्यवस्था का क्रम निर्धारित किया जाता है जिससे सीखने की ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो सके जिनसे उद्देश्यों की प्राप्ति हो सके। छात्रों तथा शिक्षक की अन्त प्रक्रिया के प्रारूप को क्रमबद्ध रूप में व्यवस्थित किया जाता है।
(3) सामाजिक प्रणाली- सामाजिक प्रणाली शिक्षण प्रतिमान के उद्देश्य के अनुसार होती है। शिक्षण एक सामाजिक प्रक्रिया है इसलिये छात्र और शिक्षक की क्रियाओं और उनके आपसी सम्बन्धों का निर्धारण इस सोपान में किया जाता है। प्रत्येक शिक्षण प्रतिमान का उद्देश्य अलग-अलग होता है इसलिये उसकी सामाजिक प्रणाली भी, अलग-अलग होती है। छात्रों के व्यवहार का नियन्त्रण तथा उनमें अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन लाना सामाजिक प्रणाली पर ही आधारित होता है।
(4) मूल्यांकन प्रणाली- शिक्षण के प्रतिमान का यह अन्तिम सोपान है जो कि अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। इसमें शिक्षण की सफलता के सम्बन्ध में निर्णय लिया जाता है कि उद्देश्य की प्राप्ति हो सकी अथवा नहीं। इसके आधार पर प्रयुक्त की गयी शिक्षण व्यूह रचना तथा युक्तियों की प्रभावशीलता का पता चलता है और उनमें सुधार एवं परिवर्तन लाया जा सकता है। प्रत्येक प्रतिमान का उद्देश्य भिन्न-भिन्न होता है, इसलिये मूल्यांकन प्रणाली भी अलग-अलग होती है।
शिक्षण प्रतिमान के प्रकार - शिक्षण प्रतिमान का विभाजन विभिन्न प्रकार से किया गया है जो निम्नवत् है -
(A) ऐतिहासिक शिक्षण प्रतिमान
(1) सुकरात शिक्षण प्रतिमान - सुकरात
(2) शास्त्रीय मानवतावादी प्रतिमान - ब्राउडी
(3) स्वयं विकास शिक्षण प्रतिमान -
(B) दार्शनिक शिक्षण प्रतिमान इजरायल सैफलर
(1) प्रभाव प्रतिमान - जान लॉक
(2) सूझ प्रतिमान - प्लेटो
(3) नियम प्रतिमान - कान्ट
(C) मनोवैज्ञानिक शिक्षण प्रतिमान - जॉन पी. डिकेको
(1) बुनियादी शिक्षण प्रतिमान - राबर्ट ग्लेसर
(2) कम्प्यूटर पर आधारित शिक्षण प्रतिमान - स्टूलोरो,डेविस
(3) विद्यालय अधिगम का शिक्षण प्रतिमान - जॉन करौल
(4) अन्त प्रक्रिया शिक्षण प्रतिमान - नैड ए.फलैन्डर्स
(D) शिक्षक शिक्षा के लिये शिक्षण प्रतिमान
(1) तबा का शिक्षण प्रतिमान
(2) टर्नर का शिक्षण प्रतिमान
(3) A Model of Variation in teacher-Orientation
(4) फाक्स-लिपिट का शिक्षण प्रतिमान
(E) आधुनिक शिक्षण प्रतिमान - ब्रूस और जुआइस और मार्शा वेल
ये शिक्षण प्रतिमान निम्नवत् 5 श्रेणियों में विभक्त हैं -
(a) सामाजिक अन्त: प्रक्रिया स्त्रोत
(1) सामूहिक अन्वेषण प्रतिमान - जान दीवी
(2) न्याय संगत प्रतिमान - डोनाल्ड ओलीवर
(3) सामाजिक प्रच्छा प्रतिमान - मौसिल्स एवं कॉक्स
(4) प्रयोगशाला प्रतिमान - बेथल एवं मेने
(5) Role Playing Model - Fannis Shaftel
George Shaftel
(6) सामाजिक अनुकरणीय प्रतिमान - सरेल बूकॉक
हेरॉल्ड गेटजहाऊ
(b) सूचना प्रक्रिया स्त्रोत
(1) निष्पत्ति प्रत्यय प्रतिमान - जेरोमी एस.बूनर
(2) आगमन प्रतिमान - हिल्बा ताबा
(3) पृच्छा प्रशिक्षण प्रतिमान - रिचर्ड सचमैन
(4) जैविक विज्ञान पृच्छा प्रतिमान - जॉसफ जे.सकवाब
(5) अग्रिम व्यवस्थापक प्रतिमान - डेविड आसुबेल
(6) विकासात्मक प्रतिमान - जॉन प्यिाजे
(7) स्मृति प्रतिमान - जैनी लॉक्स
(c) व्यक्तिगत स्त्रोत
(1) दिशा विहीन शिक्षा प्रतिमान - कार्ल आर.रोजर्स
(2) कक्षा सभा प्रतिमान - विलियम ग्लेसर
(3) सृजनात्मक शिक्षण प्रतिमान - विलियम गार्डन
(4) अभिज्ञान प्रशिक्षण प्रतिमान - डब्ल्यू.एस. क्रिटिज
(5) प्रत्यय-प्रणाली प्रतिमान - डेविड हन्ट
(d) व्यवहार परिवर्तन सोता
(1) सक्रिय अनुबन्धन प्रतिमान - बी.एफ.स्किनर
(2) तनाव न्यूनीकरण - रिम एवं मास्टर वोल्प
(3) Densensitization- Wolpe
(4) सक्रिय विधि द्वारा आत्म नियन्त्रण - बी.एफ.स्किनर,रिम एवं
मास्टर वोल्प
(5) निम्नीज्ञात्मक प्रशिक्षण प्रतिमान - Wolpe, Lazarus and Salter
ऐतिहासिक शिक्षण प्रतिमान :
(1) सुकरात शिक्षण प्रतिमान - सुकरात ये मानते हैं कि ज्ञान बच्चों में पहले से ही विद्यमान है उसे हम बाहर से नहीं दे सकते हैं। शिक्षक का कार्य यह है कि वह प्रश्नों के द्वारा बच्चों के ज्ञान को बाहर ला सकता है तथा विकास कर सकता है। इस प्रतिमान में शिक्षक का महत्तवपूर्ण स्थान है। शिक्षक का कार्य प्रश्नों का निर्माण तथा उन्हें पूछना है जबकि विद्यार्थी का कार्य, पुराने अनुभवों से उन प्रश्नों का उत्तर देना है। सुकरात का शिक्षण प्रतिमान, मूल्यांकन प्रणाली की उपेक्षा करता है तथा यह स्वयं-परीक्षण पर दवाब डालता है।
(2) शास्त्रीय मानवतावादी शिक्षण प्रतिमान- इस प्रतिमान का विकास 15वीं शताब्दी से लेकर 19वीं शताब्दी तक रहा। ब्राउडी के इस प्रतिमान के द्वारा अनुदेशन के उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सकती है जिसमें बोलने, लिखने, तर्क आदि कौशलों की प्राप्ति होती है। यह एक ऊंचे स्तर पर अनुदेशात्मक प्रक्रिया का विकास करता है। इसकी मुख्य विधि प्रदर्शन है। शिक्षक विद्यार्थियों के प्रदर्शन को देखकर अगर जरूरत हो तो पुन: उस क्रिया को दुहरा सकते हैं। यह प्रतिमान आज के प्रतिमानों के लिये एक निश्चित तत्व व पाठ्यक्रम प्रस्तुत करता है।
(3) व्यक्तिगत-विकास शिक्षण प्रतिमान- इस प्रतिमान का महत्तवपूर्ण उद्देश्य स्वयं विकास या व्यक्तिगत विकास है। यह अनुदेशन व्यवस्था करता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी रुचियों को विकसित कर सकता है। व्यक्ति अपने जीवन को व्यवस्थित (सामंजस्य) रखने की शक्ति को विकसित कर सकता है। इस तरह यह प्रतिमान प्रत्येक विद्यार्थी को यह सुअवसर प्रदान करता है कि प्रत्येक विद्यार्थी स्वयं खोज करके तथा अपने कौशल को स्वयं विकसित करे। शिक्षक को चाहिये कि वह बच्चों के समक्ष ऐसी सामग्री प्रस्तु करे कि बालक अपने आप को सुरक्षित तथा सन्तुष्ट महसूस करे। शिक्षक को चाहिये कि वह व्यक्तियों को उनकी आयु के अनुसार उनके अपने अनुभवों तथा प्राप्तियों से उनका मूल्यांकन करें तथा शिक्षक को प्रत्येक विद्यार्थी को महत्तव देना चाहिये, उनमें तुलना नहीं करनी चाहिये।
दार्शनिक शिक्षण प्रतिमान :
(1) प्रभाव शिक्षण प्रतिमान : जॉन लॉक- जॉन लॉक की धारणा है कि जन्म के समय बालक का मस्तिष्क खाली होता है। शिक्षण द्वारा जो अनुभव प्रदान किये जाते हैं वे उसके मस्तिष्क पर प्रभाव डालते हैं जिसे अधिगम कहते हैं। मानसिक शक्तियों को अभ्यास के द्वारा उसमें प्रत्यक्षीकरण, विभेदीकरण, धरण तथा चिन्तन की क्षमताओं को विकसित किया जाता है। शिक्षण द्वारा बाह्य तत्वों का अनुभव किया जाता है। अधिगम प्रक्रिया में ज्ञानेन्द्रियों की अनुमति तथा भाषा सिद्धान्तों को अधिक महत्व दिया जाता है। शिक्षण प्रक्रिया को प्रभावशीलता शिक्षक की योग्यता तथा सम्प्रेषण की क्षमताओं पर निर्भर होती है।
(2) सूझ शिक्षण प्रतिमान - प्लेटो- प्रभात प्रतिमान से तात्पर्य शिक्षण द्वारा विचारों या ज्ञान को छात्र के मस्तिष्क भण्डार में पहुँचाना है। प्लेटो ने इस धारणा को खण्डन किया. उनकी धारणा है कि ज्ञान को केवल शब्दों के प्रयोग तथा छात्रों के सुनने से ही प्रदान नहीं किया जा सकता है जब तक मस्तिष्क उसको महत्व न दे। मानसिक प्रक्रिया से भाषा का अलग सम्बन्ध है। भाषा द्वारा छात्रों को प्रेरणा दी जा सकती है। शिक्षण तथा अधिगम में यह प्रतिमान छात्रों से सूझ प्रतिमान अधिक शक्तिशाली है परन्तुत इसका प्रयोग ज्ञानात्मक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये ही किया जा सकता है।
(3) नियम शिक्षण प्रतिमान-काण्ट- नियम प्रतिमान में तर्क शक्ति को अधिक महत्व दिया है, तर्क में किन्हीं नियमों का अनुसरण किया जाता है। ज्ञानात्मक पक्ष में तर्क एक प्रहार से सत्य के लिये प्रमाणों को प्रस्तुत करता है। नियम-प्रतिपादन से ज्ञानात्मक तथा चारित्रिक गणों का विकास किया जाता है। इसमें सांस्कृतिक, नैतिक तथा मूल्यों का भी विकास किया जाता है।
मनोवैज्ञानिक शिक्षण प्रशिक्षण, शिक्षण तथा अधिगम की विभिन्न क्रियाओं के पारस्परिक सम्बन्ध की व्याख्या करते हैं।
मनोवैज्ञानिक शिक्षण प्रतिमान :
(1) बुनियादी शिक्षण प्रतिमान- रॉबर्ट ग्लेशर (1962)
मनोवैज्ञानिक अधिनियमों तथा सिद्धान्तों की सहायता से शिक्षण उद्देश्यों की प्राप्ति का प्रयास किया जाता है। इस प्रतिमान में शिक्षण की प्रक्रिया को चार पक्षों में विभाजित किया जाता है -
(1) अनुदेशनात्मक उद्देश्य
(2) पूर्व व्यवहार
(3) अनुदेशनात्मक प्रक्रिया
(4) निष्पत्ति का मूल्यांकन
इस प्रतिमान में निष्पत्ति का मूल्यांकन उद्देश्यों, छात्रों के व्यवहार तथा शिक्षक को पुर्नबलन प्रदान करता है।
(1) अनुदेशात्मक उद्देश्यों से तात्पर्य उन क्रियाओं से है जो छात्रों के शिक्षण के पूर्व करनी चाहिये।
(2) पूर्व व्यवहार से तात्पर्य शिक्षण की उन क्रियाओं से है जो पाठ्यवस्तु की बोधगम्यता के लिये आवश्यक है।
(3) अनुदेशनात्मक प्रक्रिया से तात्पर्य शिक्षण की उन क्रियाओं से है जो पाठ्यवस्तु के प्रस्तुतीकरण के लिये प्रयुक्त की जाती है।
(4) निष्पत्ति मूल्यांकन से तात्पर्य उन निरीक्षण विधियों से है जिनके आधार पर शिक्षक निर्णय लेता है कि कहाँ तक छात्रों को विषयवस्तु का स्वामित्व प्राप्त हो रहा है यदि नहीं हो पाया है तो पूर्व तीनों किसी एक के अभाव के कारण है तो उसमें सुधार लाना चाहिये।
2. कम्प्यूटर पर आधारित शिक्षण प्रतिमान - स्ट्लेरो, डेनियल डेविस
इसमें शिक्षक का कार्य कम्प्यूटर करता है। इस शिक्षण प्रतिमान के दो पक्ष होते हैं।
(1) शिक्षण से पूर्व पक्ष- इसमें छात्रों के पूर्व व्यवहार तथा अनुदेशन के उद्देश्यों का निर्धारण किया जाता है।
(2) शिक्षण पक्ष- इसमें दो कार्य किये जाते हैं। शिक्षण छात्रों के पूर्व व्यवहार तथा उद्देश्यों के अनुरूप कम्प्यूटर शिक्षण योजना का चयन करके प्रस्तुत करता है। छात्रों की निष्पत्तियों का निरीक्षण किया जाता है। अपेक्षित उपलब्धियाँ होने पर दूसरी शिक्षण योजना प्रस्तुत की जाती है।
इस प्रतिभा में शिक्षण तथा निदान दोनों क्रियायें एक साथ होती है। निदान के आधार पर उपचारात्मक अनुदेशन भी दिया जाता है। ये प्रतिमान व्यक्तिगत भिन्नता की आवश्यकताओं के लिये समान अवसर प्रदान करता है।
विद्यालय अधिगम के लिये शिक्षण प्रतिमान - जॉन करोल (1962) का कहना है कि छात्रों को उनकी आवश्यकताओं के अनुसार समय एक महत्वपूर्ण घटक माना जाना चाहिये। जिससे व्यक्तिगत भिन्नता का नियन्त्रण हो जाता है। इस प्रतिमान की प्रमुख विशेषता है कि यह अनुदेशन की प्रक्रिया में छात्रों को पूर्ण अवसर प्रदान करता है। छात्रों में उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप अधिगम के लिये समय देना चाहिये।
3. अन्त: प्रक्रिया शिक्षण प्रतिमान- नेड ए. फ्लैण्डर्स- (1960)
इन्होंने कक्षा व्यवहार को दस वर्गों में विभाजित किया है। इसमें शिक्षक तथा छात्रों के स्वोपक्रम तथा अनुक्रिया के प्रवाह का निरीक्षण किया जाता है। इस प्रतिमान में शिक्षक-छात्र के शाब्दिक अन्त प्रक्रिया को महत्व दिया जाता है।
स्वरूप- इस प्रतिमान के चार प्रमख पक्ष होते हैं -
(1) उद्देश्य- शिक्षक तथा छात्रों के बीच होने वाली अन्त प्रक्रिया के स्वरूप का निर्धारण करना।
(2) पर्व व्यवहार- इसमें छात्रों की भावनाओं, विचारों तथा वर्तमान सूचनाओं को सम्मिलित किया जाता है।
(3) प्रस्तुतीकरण- शिक्षक तथा छात्रों में शाब्दिक अन्त प्रक्रिया होती है जिसका विस्तार अप्रत्यक्ष प्रभाव तक होता है।
(4) मूल्यांकन- अन्त प्रक्रिया द्वारा छात्रों की निष्पत्तियों में वृद्धि होती है जिसका मूल्यांकन परीक्षा द्वारा किया जाता है।
Teaching Models for Teacher-Education
1. टबा का शिक्षण प्रतिमान- यह प्रतिमान छात्रों में शिक्षण-प्रशिक्षण की सुविधाओं को विकसित करता है। यह छात्रों में तर्कशक्ति तथा शिक्षक द्वारा छात्रों में शिक्षण कौशलों को विकसित करने की प्रेरणा देता है। एक शिक्षक के लिये बाह्य क्रियायें तथा आन्तरिक सोचने की शक्ति उसे और गुणी बनाती है। शिक्षक इसमें प्रश्न तकनीक का उपयोग कर सकते हैं। यह प्रतिमान सेवारत अध्यापकों तथा होने वाले अध्यापकों को अधिक गुणी बनाने हेतु प्रभावशाली ढंग से कार्य कर सकता है।
2. टर्नर का शिक्षण प्रतिमान- इस प्रतिमान में टर्नर ने शिक्षकों हेतु एक उपचारात्मक परीक्षण विकसित किया जिससे छात्रों को सीखने में पैदा होने वाली कठिनाइयों का पता लगाकर दूर किया जा सके। इसके लिये एक शिक्षक को अपने विषय में पूरी महारत हासिल होनी जरूरी है तभी वह छात्रों के अधिगम में होने वाली कठिनाइयों को पहचान सकता है। इस प्रतिमान द्वारा अनुकरणीय शिक्षण को विकसित करके कठिनाई निवारण के कौशलों को विकसित किया जा सकता है। जिससे अधिगम में होने वाली कठिनाइयों को पहचान कर उनको दूर करने हेतु सुझाव दिये जा सकें। यह प्रतिमान शिक्षा-शिक्षण को विकसित करते हुये कक्षा शिक्षण में प्रशिक्षण लेते हुए शिक्षकों में कौशलों को विकसित करता है।
3. शिक्षक दिग्विन्यास में परिवर्तन का प्रतिमान- यह प्रतिमान फ्लैण्डर्स के अन्त प्रक्रिया शिक्षण के समान ही है। यह कक्षा में शाब्दिक अन्तःप्रक्रिया के तीन आयाम प्रस्तुत करता है। प्रथम आयाम अधिगम के लक्ष्य से सम्बन्धित है। दूसरे आयाम में शिक्षक को अपने व्यवहार में नियन्त्रण रखना चाहिये तभी वह निर्धारित उद्देश्यों को पाने में सफल हो सकता है। तीसरा आयाम क्रियाओं में आन्तरिक परिवर्तन को बताता है अर्थात् अप्रत्यक्ष प्रभाव का परिवर्तन प्रत्यक्ष में। यह प्रतिमान प्रशिक्षण लेने वाले शिक्षकों को शिक्षक क्रियाओं को समझने में सहायता करता है। यह प्रतिमान पूर्व सेवा शिक्षक, प्रशिक्षण कार्यक्रमों में शिक्षक के व्यवहार परिवर्तन में बेहद सहायक है।
4. फॉक्स-लिपिट शिक्षण प्रतिमान- यह प्रतिमान ग्लेसर के बुनियादी शिक्षण प्रतिमान के समान है। यह प्रतिमान शिक्षक को उसके शिक्षण में सुधार लाता है। इस प्रतिमान के अनुसार शिक्षण एक वृत्ताकार प्रक्रिया है। यह कक्षा शिक्षण में अभ्यास के लिये बेहद लाभदायक है।
आधुनिक शिक्षण प्रतिमान (ब्रस-जीयसी) :
ये प्रतिमान सामाजिक अध्ययन विषय के उद्देश्यों की प्राप्ति में विशेष भूमिका निभाते है।
(1) सामाजिक अन्तःप्रक्रिया प्रतिमान :
इस प्रकार के शिक्षण प्रतिमानों में व्यक्ति की सामाजिक क्षमताओं के विकास पर अधिक बल दिया जाता है। इन प्रतिमानों का प्रयोग प्रजातन्त्र प्रणाली में प्रभावशाली ढंग से किया जाता है।
(a) सामूहिक अन्वेषण प्रतिमान : जाँन डीवी एवं हारबर्ट- इस प्रतिमान का मुख्य उद्देश्य सामाजिक क्षमताओं का विकास करना है जिसमें प्रजातान्त्रिक जीवन में समायोजन कर सकें। इस प्रतिमान में समाजीकरण को प्रधानता दी गयी है।
(b) न्याय संगत प्रतिपान : ओलीवर तथा शेवर- इस प्रतिमान का प्रमुख उद्देश्य सामाजिक जीवन की समस्याओं को पहचानने तथा उनके प्रति एकत्रित की गयी सूचनाओं एवं तों के आधार पर तर्कपूर्ण ढंग से सोचने तथा समझने की क्षमताओं का विकास करना है। इस प्रतिमान से विदित हो जाता है कि छात्र कहाँ तक जीवन की समस्याओं को सामाजिक मूल्यों से सम्बन्धित कर सकते हैं। इस प्रतिमान के द्वारा ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न करने का प्रयास किया जाता है जिनसे छात्रों में बौद्धिक तथा सामाजिक विकास होता है तथा सामाजिक समस्याओं का विश्लेषण कर सकता है। इस प्रतिमान से विदिन होता है कि छात्र कहाँ तक जीवन की समस्याओं को सामाजिक मूल्यों से सम्बन्धित कर सकते हैं।
(c) सामाजिक पृच्छा प्रतिमान : कोक्स तथा बाइरोन - इस प्रतिमान का उद्देश्य सामाजिक विषयों का बोध कराना है। इसमें ज्ञानात्मक-पक्ष के उद्देश्यों की प्राप्ति को अधिक महत्व दिया जाता है। इस प्रतिमान का प्रयोग छात्रों में सामाजिक समस्याओं के चिन्तन के लिये किया जाता है। समस्या के समाधान के लिये प्रयुक्त किये जाने वाले सोपानों का भी बोध होता है। यह प्रतिमान सामाजिक सन्दर्भ में तथ्यों के बोध के लिये अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है।
(d) प्रयोगशाला विधि प्रतिमान : बेथल तथा मेने - इस प्रतिमान का प्रमुख उद्देश्य छात्रों में पारस्परिक सम्बन्धों का विकास करना है। इसमें सामूहिक कौशल का विकास किया जाता है जिससे छात्र समायोजन कर सकें। प्रयोगशाला प्रशिक्षण में अभ्यासों, सिद्धान्तों तथा प्रशिक्षण समूह की प्रवृत्ति एवं आवश्यकताओं को ध्यान में रखा जाता है। प्रशिक्षण परिस्थितियाँ प्रजातान्त्रिक होती हैं इसमें सामाजिक अभिप्रेरणा व्यक्तिगत विकास एवं सम्प्रेषण को अधिक प्रधानता देते हैं।
(e) अनुकरणीय शिक्षण प्रतिमान : फैनिस शैफल जी. शैफल - इस प्रतिमान के द्वारा सामाजिक कौशल का विकास किया जाता है। पाठ्यप्रदर्शन की अपेक्षा अनुकरणीय शिक्षण को अधिक महत्व दिया जाता है। इस प्रतिमान में छात्राध्यापक को कौशलों को विकसित करने के लिये शिक्षक तथा छात्रा दोनों की भूमिका का निर्वाह करना पड़ता है। छात्राध्यापक को एक छोटे प्रकरण में अपने साथियों को ही पढ़ाना पड़ता है। उसके अन्य साथी छात्रों की भूमिका निभाते हैं। शिक्षण के कार्यों की समीक्षा की जाती है और सुधार के लिये सुझाव दिया जाता है। इसके बाद अन्य अत्राध्यापक शिक्षण करते हैं। इस प्रतिमान में पृष्ठपोषण प्रविधि का प्रयोग किया बावा है। इसमें सामाजिक कौशल का विकास मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त के उपयोग के लिये किया बाता है। इसमें छात्राध्यापक जीवन से सम्बन्धिक कौशल का विकास अनुभव द्वारा किया जाता है। छात्राध्यापक अपनी ही क्रियाओं का विश्लेषण, संश्लेषण तथा मूल्यांकन भली प्रकार से कर सकता है। इसमें सामाजिक कौशल का विकास किया जाता है।
2. सूचना प्रक्रिया प्रतिमान :
इस प्रकार के प्रतिमानों द्वारा छात्रों को सूचना तथा तथ्यों का बोध कराया जाता है। इसमें समस्या के समाधान तथा तथ्यों, प्रत्ययों के बोध के लिये उद्दीपन तथा समुचित वातावरण को उत्पन्न किया जाता है। इनके प्रयोग में छात्रों की सामान्य बौद्धिक क्षमताओं का विकास किया जाता है।
(a) प्रत्यय निष्पत्ति प्रतिमान : जे. ब्रूनर- इस प्रतिमान द्वारा भाषा का बोध तथा कौशल का विकास करना है। प्रमुख रूप से आगमन तर्क का विकाम करना है। इसमें इस प्रकार की व्यूह रचना प्रयुक्त की जाती है जिससे नवीन प्रत्यों का बोध कराया जा सके ! जब कमी शिक्षक अपने शिक्षण से छात्रों को किसी तथ्य का सही बोध नहीं करा पाते हैं तब यही प्रतिमान प्रयुक्त किया जाता है। इसका प्रयोग दूरदर्शन पर भी किया जा सकता है।
(b) आगमन शिक्षण प्रतिमान : हिन्टा तबा- इस प्रतिमान का विकास छात्र-अध्यापक के लिये किया गया है जिससे हम अध्यापक अधिगम की समस्याओं का विश्लेषण कर सके और निदान के आधार पर उपचार कर सकें। इस प्रतिमान का प्रमुख उद्देश्य मानसिक प्रक्रियाओं का विकास करना है विससे प्रत्ययों का विकास तथा बोध होता है। इस प्रतिमान को तबा ने चिन्तन की क्षमताओं के विकास के लिये अधिक उपयोगी माना है। अत्रों को सूचनाओं,तथ्यों तथा प्रदत्तों का बोध कराने के लिये यह प्रतिमान अधिक प्रयुक्त होता है। सामाजिक विषयों के शिक्षण के लिये भी यह अधिक उपयोगी माना जाता है। विज्ञान की पाठ्यवस्तु के शिक्षण में भी इसे प्रयुक्त करते हैं।
3. पृच्छा प्रशिक्षण प्रतिमान :
रिचर्ड सचमैन के अनुसार यदि कक्षा में अध्यापक द्वारा समस्या पहेली के रूप में छात्रों के समक्ष प्रस्तुत की जाए जबकि वह समस्या पाठ्यक्रम पर ही आधारित होनी चाहिये जिससे छात्र पहेली के रूप में प्रस्तुत की गयी समस्याओं को स्वयं सुलझाने में प्रयत्न करने लगते हैं। प्रत्येक छात्र अपने-अपने ढंग से उस समस्या का हल खोजते हैं। जिससे व्यक्तिगत क्षमताओं का विकास होता है। छात्रों का समस्या को हल करने में बौद्धिक विकास होता है। प्रत्येक मत्र को स्वयं पहेली के रूप में प्रस्तुत समस्या का हल खोजने तथा प्राप्त प्रशिक्षण में आत्मप्रेरणा मिलती है। छात्र उन समस्याओं को सुलझाने में शिक्षक पर निर्भर नहीं रहते हैं बल्कि स्वयं ही प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं। छात्र समस्याओं के हल को खोजने के उपरान्त उन हलों को प्रश्नों के रूप में ढालकर शिक्षक से उनका प्रत्युत्तर चाहते हैं। प्रश्नों का रूप इस तरह का होता है कि शिक्षक का उत्तर हाँ और नहीं में ही होता है। यदि छात्र अपने हल में नहीं का उत्तर पाते हैं तो वे फिर से दूसरे ढंग से उन समस्याओं का हल खोजते हैं। शिक्षक उन्हें मार्ग का थोड़ा इशारा कर सकते हैं। छात्र फिर से हाँ और नहीं के प्रत्युत्तर के प्रश्न बनाते हैं। इस प्रतिमान का प्रमुख कार्य हल तक पहुँचना या समस्याओं के सुझाव में नहीं है बल्कि उसको सुलझाने की प्रक्रिया या प्रशिक्षण में छात्रों को प्रशिक्षित करना ही प्रमुख लक्ष्य है। शिक्षक इस प्रतिमान को सहायता से अनदेशन लक्ष्यों को प्राप्त करवा सकता है। इस प्रतिमान के द्वारा छात्रों में स्वयं खोज के कौशल को विकसित करना ही प्रमुख लक्ष्य है। इस प्रतिमान में छात्रों के समक्ष समस्याएँ भी तरह-तरह की अलग-अलग प्रस्तुत की जाती हैं जिसके कारण छों में प्रशिक्षण कौशल भो अलग-अलग विकसित किये जा सकते हैं। इस प्रतिमान का कार्य मुख्य रूप से छात्र में परिकल्पनाओं को बनाना, उन्हें test करना, data collect करना, observe करना है जिससे वे पाठ्यक्रम में content को स्वयं सीखें तथा स्वयं खोजों व अपने कौशलों को विकसित करें। यह प्रतिमान अन्वेषण व्यूह रचना पर आधारित है। इसका प्रमुख उद्देश्य छात्रों में खोज की प्रवृत्ति को जागृत करना है। इनकी विचारधारा है कि “बालकों को जितना अधिक सम्भव हो स्वयं खोजने के लिये प्रोत्साहित किया जाए। इस प्रतिमान के द्वारा छात्रों में तर्क शक्ति, कल्पना शक्ति, निरीक्षण की प्रवृत्, समस्या समाधान की प्रवृत्ति, आत्मनिर्भरता की भावना, कार्य द्वारा सीखने के अवसर, जिज्ञासा की भावना विकसित होती है। जिससे वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास होता है।"
4. जैविक विज्ञान पृच्छा प्रतिमान :
जासँफ जे सकवाब ने इस शिक्षण प्रतिमान का विकास किया है। इसमें सामाजिक तथ्यों के अन्वेषण का अनुकरण किया जाता है। छात्र अपने लिये सामाजिक परिस्थितियों में तथ्यों का अन्वेषण करता है। इस प्रतिमान का उद्देश्य, अन्वेषण करना, सामाजिक तथ्यों का बोध करना तथा सामाजिक समस्याओं का समाधान करने की क्षमताओं का विकास करना है। इस प्रतिमान में शिक्षक ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करता है जिससे छात्रों में चिन्तन शक्ति का विकास हो सके। इस प्रतिमान का प्रयोग जीव-विज्ञान के विषयों के लिये किया जाता है। इसके द्वारा व्यापक प्रत्ययों तथा उनकी प्रकृति का बोध कराया जाता है।
5. अग्रिम व्यवस्थापक प्रतिमान :
डेबिड आसुबेल ने इस प्रतिमान का विकास किया। इसमें प्रत्ययों एवं तथ्यबोध से ज्ञान-पुंज का विकास किया जाता है। आसुबेल की धारणा है कि अमूर्त विचारों को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है। जिस पाठ्यवस्तु का छात्र विश्लेषण कर लेता है उससे सम्बन्ध स्थापित करते हये नवीन ज्ञान का बोध कराया जा सकता है। इस प्रतिमान में शिक्षक छात्र के ज्ञानात्मक स्वर को देखते हुये उनके पुराने अधिगम से सम्बन्ध स्थापित करके ही नया ज्ञान देता है। इसी तरह वह आगे बढ़ता है अर्थात् सामान्य से कठिन की ओर बढ़ता है। इस प्रतिमान का प्रयोग अमूर्त पाठ्यवस्तु के शिक्षण में किया जाता है। पाठ्यवस्तु के क्रमबद्ध ज्ञान के लिये अधिक उपयोगी प्रतिमान है। प्रत्ययों से सम्बन्ध स्थापित करने के लिये आसुबेल का प्रतिमान अधिक प्रयुक्त होता है। ज्ञानात्मक पक्ष के उच्च स्तर के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये इसका प्रयोग किया जाता है।
6. विकासात्मक शिक्षण प्रतिमान :
जीन प्याजे ने इस प्रतिमान का विकास किया है। इसका मुख्य उद्देश्य सामान्य बौद्धिक क्षमताओं का विकास करना है तथा तार्किक चिन्तन की क्षमताओं का विकास करना है। प्याजे के प्रतिमान का प्रयोग ज्ञानात्मक तथा सामाजिक क्षमताओं के विकास के लिये किया जाता है। अनुदेशन प्रणाली के निदान में भी प्रयुक्त होता है। तर्कपूर्ण चिन्तन के विकास के लिये अधिक उपयोगी माना जाता है। बालक के ज्ञानात्मक विकास के लिये समुचित वातावरण उत्पन्न हुआ अथवा नहीं इसके सम्बन्ध में निर्णय लिया जाता है।
7. स्मृति स्तर के शिक्षण का प्रतिमान :
इस प्रतिमान का विकास हैरी लोरेंस एवं जेरी लौक ने किया है। इस प्रतिमान का उद्देश्य है कि छात्रों में निम्न क्षमताओं का विकास हो जिसमें कि उनके मानसिक पक्ष को प्रशिक्षित किया जाए। छात्रों को तथ्यों का ज्ञान दिया जाए तथा सीखे गये तथ्यों का स्मरण कराया जाए।
छात्रों को सीखे गये ज्ञान का प्रत्यास्मरण करने तथा पुनः प्रस्तुत करवाना स्मृति स्तर के शिक्षण प्रतिमान में अभिप्रेरण का बाह्या रूप ही अधिक प्रयुक्त किया जाता है।
व्यक्तिगत स्त्रोत शिक्षण प्रतिमान :
इन प्रतिमानों द्वारा व्यक्तिगत विकास को अधिक महत्व दिया जाता है। इसमें व्यक्ति के भावात्मक पक्ष के विकास पर अधिक बल दिया जाता है। ये प्रतिमान बालक की आन्तरिक व्यवस्था के विकास को प्रधानता देते हैं। इससे छात्रों में आत्मबोध तथा आत्मचिन्तन का विकास होता है। इस वर्ग के शिक्षण में चार प्रतिमानों को सम्मिलित किया गया है।
1. दिशा-विहीन शिक्षण प्रतिमान- इस शिक्षण प्रतिमान का विकास कार्लरोजर्स ने किया है। इस प्रतिमान के द्वारा छात्र का व्यक्तिगत विकास किया जाता है जिसके द्वारा वह स्वाध्याय, आत्मबोध तथा स्वयं अन्वेषण की क्षमताओं को विकसित कर सके। यह प्रतिमान व्यक्ति में स्वः अनुदेशन की सहायता से व्यक्तिगत विकास के लिये स्वयं सीखने,स्वयं अन्वेषण तथा आत्मबोध को विकसित करता है। इस प्रतिमान के प्रयोग के द्वारा छात्रों की सामान्य योग्यता का विकास किया जाता है जो जीवन के लिये अधिक आवश्यक है। छात्र अपने मानसिक तथा सामाजिक, मौलिक, क्षमताओं के विकास का एकीकरण कर सकता है। इसका प्रयोग शिक्षण के व्यापक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये किया जा सकता है।
2. कक्षा सभा प्रतिमान - विलियम ग्लेसर ने इस शिक्षण प्रतिमान को विकसित किया है। ग्लेसर ने इस प्रतिमान को व्यक्तिगत गुणों के विकास के लिये विकसित किया है। इसका मुख्य उद्देश्य कर्त्तव्य-परायणता, आत्मबोध तथा कौशल विकसित करना है। निर्णय लेने की क्षमताओं के विकास के लिये भी इसका प्रयोग किया जाता है। इसके द्वारा व्यवहारिक क्षमताओं का विकास भी किया जाता है।
3. सृजनात्मक-शिक्षण प्रतिमान - डब्ल्यू गोर्डन ने सृजनात्मक शिक्षण प्रतिमान का विकास किया है। इसका उद्देश्य समस्याओं के समाधान के लिये सृजनात्मक क्षमताओं का विकास करना है। इस प्रतिमान में शिक्षक छात्र के समक्ष सादृश्य अनुभव प्रस्तुत करते हैं तथा छात्र अपने व्यक्तिगत सादृश्य अनुभवों को प्रयुक्त करने का प्रयास करते हैं। यह प्रतिमान व्यक्तिगत तथा सामूहिक सृजनात्मक क्षमताओं के विकास के लिये प्रयुक्त किया जाता है। इसमें सीखने की क्रियाएँ आन्तरिक होती हैं। एक समूह के छात्रों के अलग-अलग अनुभव होते हैं। इसका प्रयोग अन्तप्रक्रिया शिक्षण में सफलता पूर्वक किया जाता है। छात्र-अध्यापक भी इस प्रतिमान का सफलतापूर्वक प्रयोग कर सकते हैं। इसका प्रयोग छोटे बच्चों के लिये नहीं किया जा सकता है। इसमें विश्लेषण तथा संश्लेषण की प्रक्रिया प्रमुख होती है।
4. जानकारी शिक्षण प्रतिमान- इस शिक्षण प्रतिमान का विकास डब्ल्यू.एस. क्रिटिज ने किया है इसमें स्वयं जानकारी तथा अभियान को सहायता से व्यक्तिगत क्षमताओं का विकास किया जाता है। इस प्रतिमान का प्रमुख उद्देश्य व्यक्तिगत क्षमताओं का विकास करना है। इसके अतिरिक्त मानवीय सम्बन्धों की जानकारी में वृद्धि करना है। इसे छात्रों के आत्मबोध के लिये प्रयुक्त किया जाता है। सामाजिक क्षमताओं, कर्तव्यपरायणता, दूसरों की सहायता करने की प्रवृत्ति तथा मुखर होकर वाद-विवाद की क्षमताओं के विकास के लिए इनका प्रयोग किया जाता है।
5. प्रत्यय-प्रणाली प्रतिमान - इस प्रतिमान का विकास डेविड एफ. हण्ट ने किया है। इस प्रतिमान का प्रमुख उद्देश्य व्यक्तित्व में लचीलेपन का विकास करना जिससे वातावरण के साथ छात्र समायोजन कर सके।
व्यवहार परिवर्तन प्रतिमान :
इस प्रतिमान में छात्रों के व्यवहार परिवर्तन को अधिक महत्व दिया जाता है। सीखने को क्रियाओं और समुचित पुर्नबलन की सहायता से छात्रों में अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन लाया जाता है। इस प्रतिमान को स्किनर ने प्रस्तुत किया है। यह स्किनर के अधिगम के सिद्धान्त पर आधारित है।
1. सक्रिय अनुबद्ध अनुक्रिया - बी. एफ. स्किनर ने इस शिक्षण प्रतिमान का विकास किया है। इस प्रतिमान का उद्देश्य अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन करना है। अभिक्रमित अनुदेशन इस प्रतिमान पर आधारित है। रेखीय अभिक्रमित- अनुदेशन में इसका प्रयोग किया जाता है। छात्रों के ज्ञानात्मक पक्ष के निम्न स्तर (ज्ञान, बोध तथा प्रयोग) उद्देश्यों को प्राप्ति के लिये किया जाता है। इसका प्रयोग भावात्मक पक्ष के विकास के लिये नहीं किया जा सकता है। तथ्यों की अपेक्षा प्रत्ययों के शिक्षण के लिये यह प्रतिमान अधिक प्रभावशाली होता है। इस प्रतिमान में व्यक्तिगत भिन्नता को ध्यान में रखा जाता है तथा ज्ञानात्मक पक्ष के निम्न स्तरों के उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सकती है।
निष्कर्ष- हमने कई प्रकार के Models को देखा जिससे कि शिक्षण के उद्देश्यों की प्राप्ति की जाती है। परन्तु यहाँ पर कहना उचित होगा कि कोई भी प्रतिमान पूर्ण रूप से सभी शिक्षण उद्देश्यों की पूर्ति नहीं कर पाता है। समय परिस्थिति, उद्देश्यों के आधार पर शिक्षण में प्रतिमानों का अलग-अलग प्रयोग किया जा सकता है तभी शिक्षक उद्देश्यों की प्राप्ति संभव है।
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