राजस्थान जीके

राजस्थान जीके

राजस्थान का इतिहास और संस्कृति



इस लेख में हम राजस्थान का इतिहास और संस्कृति व इसके साथ-साथ राजस्थान इतिहास का विभाजन,प्राक इतिहास या युग,पूर्व पाषाण काल ,मध्य पाषाण काल और उत्तर पाषाण काल।आद्य इतिहास,ऐतिहासिक युग,राजस्थान इतिहास में धातु काल,राजस्थान इतिहास में ताम्र धातु काल,कांस्य युगीन सभ्यता,लोहा युगीन सभ्यता,राजस्थान की प्राचीन सभ्यताएं,कालीबंगा सभ्यता,आहड़ सभ्यता,16 महाजनपद- उनकी राजधानी,राजस्थान के जनपद आदि की संपूर्ण जानकारी प्राप्त करेंगे।

राजस्थान का इतिहास

इस लेख में हम राजस्थान का इतिहास एवं और संस्कृति के बारे में जानेंगे, 1949 -राजस्थान नाम से किसी भौगोलिक इकाई का अस्तित्व नहीं था 

राजस्थान शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई?

ऐसा माना जाता है कि 1800 ईस्वी में सर्वप्रथम थॉमसन ने इस भूभाग के लिए राजपूताना शब्द का प्रयोग किया था। इसके बाद 1829 में "एनल्स एंड एंटीक्विटीज  ऑफ  राजस्थान" के लेखक  करनल जेमस्टोड ने, 

राजस्थान शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम करनल जेमस्टोड ने किया था इस पुस्तक में इस प्रदेश का नाम रायथान or राजस्थान रखा स्वतंत्रता के बाद जब इस प्रदेश की विभिन्न रियासतों का एकीकरण हुआ सात चरणों में जो 30 मार्च 1949 ई को सर्व समिति से इसका नाम राजस्थान रखा गया।


प्राचीन साहित्य और अभिलेखों में एवं प्रशस्तियों में वर्तमान राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों के विभिन्न नाम मिलते हैं। कुछ क्षेत्र उनके भौगोलिक विशेषताओं के आधार पर और कुछ क्षेत्र वहां पर बसी जातियों के नाम से जाने जाते थे। राजस्थान के क्षेत्र के प्राचीनतम नाम में जिनका उल्लेख ऋग्वेद में भी आया है मरू, धन्व, जंगल, मत्स्य, सुरसेन आदि हैं

 मरुवर/मरू और  धन्व प्रदेश

मरू और  धन्व दोनों का अर्थ एक ही है और इनका प्रयोग जोधपुर संभाग के मरुस्थल के लिए किया जाता था जोधपुर को पहले मरू और बाद में मरुवर कहां जाने लगा और कुछ समय पश्चात इस मारवाड़ कहा जाने लगा।

जंगल प्रदेश

जंगल शब्द का प्रयोग शमी करे या पिल्लू के वृक्ष होते हो उसे स्थान के लिए जंगल शब्द का प्रयोग किया गया है बीकानेर और नागौर आसपास का क्षेत्र जंगल प्रदेश कहलाता है।

मत्स्य प्रदेश

मत्स्य जिसका उल्लेख महाभारत में एक राज्य के रूप में हुआ है वह जयपुर अलवर और भरतपुर तक विस्तृत था इसकी राजधानी विराटनगर थी भरतपुर के मथुरा क्षेत्र से सटे हुए क्षेत्र धौलपुर और करौली के अधिकांश भाग सुरसेन राज्य में सम्मिलित है यह भी एक प्राचीन राज्य था महाभारत में भी इसका उल्लेख मिलता है।

'छप्पन का मैदान'

भौगोलिक विशेषताओं के आधार पर है नामित कुछ अन्य क्षेत्र निम्नलिखित है माही के नदी के पास का प्रतापगढ़ का भूभाग कंठल कहलाता था क्योंकि यह क्षेत्र माही नदी के किनारे या कांटे पर स्थित था। 56 गांव का समूह होने के कारण प्रतापगढ़ बांसवाड़ा के मध्य का भूभाग 'छप्पन का मैदान" कहलाता है।

गिरवा प्रदेश

भैसरोडगढ़ से लेकर बिजोलिया तक का क्षेत्र पथरी होने के कारण ऊपर माल नाम से जाना जाता है। उदयपुर के आसपास का प्रदेश पहाड़ियों की अधिकता के कारण गिरवा कहलाता था।

जैसलमेर का प्राचीन नाम मंद था। डूंगरगढ़ बांसवाड़ा क्षेत्र भानगढ़ कहलाता था। कोटा और बूंदी का प्रदेश हाडोती नाम से प्रसिद्ध थे

शेखावाटी क्षेत्र

 सीकर झुंझुनू चूरू का क्षेत्र तो अपना है शेखावाटी नाम से जाना जाता है।

राजस्थान इतिहास का विभाजन

मोटे तौर पर मानव के संपूर्ण इतिहास को तीन कॉल करो में विभाजित किया है जो इस प्रकार है

  1. प्राक  इतिहास या युग
  2. आद्य इतिहास या युग
  3. ऐतिहासिक युग या इतिहास
प्राक इतिहास या युग

राजस्थान का इतिहास मानव जाति के उत्पन्न के प्रारंभिक काल से समझते हैं जो इस प्रकार है प्राक इतिहास , इतिहास के उसे समय को कहा जाता है जिसमें लिखित साक्ष्य उपलब्ध नहीं है अर्थात मानव लेखन कला से अपरिचित था।
यह युग सृष्टि के आरंभ से हड़प्पा सभ्यता के पूर्व तक था।

मानव सभ्यता का उदय नदियों के किनारे या नदी घाटियों में हुआ था क्योंकि नदी घाटियों में जल की प्रचुरता के कारण यहां अपने आप उत्पन्न होने वाले कंदमूल फल भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो जाते थे। सघन वनों के कारण यहां मानव जाति को खाने हेतु मास वह नदियों के आसपास से पशु पक्षी भी आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं इस कारण मानव ने आरंभिक अपना आवास नदी घाटी चुना जिससे उसको खाने के लिए खाना उपलब्ध हो जाता और पीने के लिए जल उपलब्ध हो जाता उसे समय मानव को सिर्फ दो ही चीजों की आवश्यकता थी। क्योंकि उसे समय मानव ज्ञानी नहीं था। और ना ही सभ्यता थी।

हजारों वर्षों पूर्व राजस्थान की भौगोलिक स्थिति भी कुछ ऐसी ही थी यद्यपि राजस्थान का एक बड़ा भाग आज मरुस्थल है किंतु विद्वानों की मान्यता है कि सैकड़ो वर्ष पूर्व है इस मरुस्थली भूमि में समुद्र विद्यमान था और सरस्वती तथा दृश्य नदियां इस समुद्र में जाकर गिरती थी यह समुद्र है आज के अरब सागर से मिलता था यह स्थिति मानव जीवन के लिए सर्वथा उपयुक्त थी यही कारण है कि ऐसी भौगोलिक स्थिति में राजस्थान को भी मानव सभ्यता के जन्म के प्राचीनतम भू भागों में से एक होने का गौरव प्राप्त हुआ है। मानव सभ्यता के उत्पन्न के इस कल को पाषाण काल कहा जाता है क्योंकि इस समय मानव के औजार व मानव की दैनिक दिनचर्या पाषाण या पत्थरों के औजारों के द्वारा ही संपन्न होती थी।
पाषाण काल को तीन भागों में बांटा जाता है 

  1. पूर्व पाषाण काल 
  1. मध्य पाषाण काल 
  1. और उत्तर पाषाण काल।


पूर्व पाषाण काल 


राजस्थान में मानव का उदय कब हुआ यह निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है अभी तक लेकिन यहां विभिन्न क्षेत्रों में हुए उत्खनन से हमें जानकारी मिलती है की पाषाण विशेष रूप से क्वार्ट्ज़िट पत्थर के अनेक उपकरणों से ज्ञात होता है कि आज से लगभग दो या डेढ़ लाख वर्ष पूर्व राजस्थान में एक मानव संस्कृति या सभ्यता विद्यमान थी 1870 में का C.A. हैकैट ने  सर्वप्रथम जयपुर और इंदरगढ़ से पत्थर से बनी पूर्व पाषाण कालीन हस्त कुठार या कुल्हाड़ी खोज की। कुछ समय पश्चात चेतनकर ने झालावाड़ से इसी युग के अनेक उपकरण खोज निकाले इसके बाद हुए योजना बाद उत्खनन में भारतीय पुरातत्व और इसी युग के अनेक उपकरण खोज निकाले इसके बाद हुए योजना बंद उत्खनन में भारतीय पुरातत्व और संग्रहालय विभाग नई दिल्ली डेक्कन कॉलेज पुणे के वीरेंद्र नाथ मिश्रा राजस्थान पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग के आरसी अग्रवाल डॉक्टर विजय कुमार हरिश्चंद्र वीर मिश्रा इन सब विद्वानों ने राजस्थान की पूर्व पाषाण कालीन सभ्यता और संस्कृति के विभिन्न पक्षों को अपनी खोजने के द्वारा सामने लाया गया

इन सब विद्वानों की सहायता से राजस्थान में अजमेर अलवर चित्तौड़गढ़ भीलवाड़ा जयपुर झालावाड़ जालौर जोधपुर पाली टोंक आदि क्षेत्रों की प्रमुख नदियों विशेष रूप से चंबल बनास में उनकी सहायक नदियों के किनारे पूर्व पाषाण कालीन उपकरण प्राप्त हुए हैं। जालौर से इस युग के उपकरणों की खोज का श्रेय B. आलिचन को दिया जाता है।

मध्य पाषाण काल


मानव सभ्यता के क्रमिक विकास की कहानी की दूसरी कड़ी के रूप में राजस्थान के प्राक इतिहास कल में मध्य पाषाण काल के बारे में समझेंगे। पश्चिमी राजस्थान में लूणी और उसके सहायक नदियां चित्तौड़ की बरस नदी घाटी और विराटनगर से मध्य पाषाण कालीन उपकरण मिले हैं। इस कल के उपकरण छोटे हल्के कुशलता से निर्मित है। यह उपकरण है  जैसपर, एगेट, कार्नेलियन क्वार्ट्जाईट, Triangle क्रिसेंट ट्रेपीज  आदि उल्लेखनीय है।
पत्थर के बने इन छोटे उपकरणों को माइक्रोलिथ या लघु पाषाण उपकरण कहा जाता है।

उत्तर या नवपाषाण काल

भारत के अन्य भागों की भांति राजस्थान में भी उत्तर या नवपाषाण कालीन सभ्यता का उदय हुआ था अजमेर नागौर सीकर झुंझुनू जयपुर उदयपुर चित्तौड़गढ़ जोधपुर आदि स्थानों से नवपाषाण काल सभ्यता के अनेक उपकरणों खोजे गए हैं जिनसे भीलवाड़ा के बैंगर और मारवाड़ के तिलवाड़ा नामक स्थान से प्राप्त उपकरण विशेष रूप से उल्लेखनीय है।



आद्य इतिहास 

यह इतिहास का वह समय है जिसमें मानव के लिखित साक्ष्य तो उपलब्ध है किंतु उन्हें स्पष्ट रूप से पढ़ना संभव नहीं है अर्थात उनकी लिपि को अभी पढ़ना समझ नहीं पाए हैं।
यह युग हड़प्पा सभ्यता के कल से सो ईसा पूर्व तक रहा।


ऐतिहासिक युग


ह इतिहास का वह समय है जिसमें मानव जाति स्पष्ट रूप से लिख सकती थी बोल सकती थी अर्थात स्पष्ट और सुपातहिते लिखित साक्षी उपलब्ध हैं इन अर्थों में भारतीय इतिहास के कार्यक्रम को इस प्रकार से विभाजित कर सकते हैं।
 यह युग 600 ईसा पूर्व से वर्तमान तक जारी है इसके अंतर्गत हम भारत और राजस्थान के आधुनिक इतिहास को पढ़ते हैं और समझते हैं।


राजस्थान इतिहास में धातु काल


राजस्थान इतिहास में ताम्र धातु काल


मानव जाति के विकास क्रम को या इतिहास को धातुओं के आधार पर भी बांटा जाता है जैसे सबसे पहले मानव ने ताम्र या तांबा धातु की खोज की इसलिए इतिहास के इस युग को ताम्र युगीन सभ्यता कहा जाता है। इस धातु कल के अंतर्गत राजस्थान में भी अनेक स्थानों से ताम्र पाषाण में ताम्र कल के अवशेष मिले हैं जो तत्कालीन युग में राजस्थान के मानव के सांस्कृतिक विकास पर पर्याप्त प्रकाश डालते हैं राजस्थान की ताम्रकालीन संस्कृति की प्राचीन स्थलों में सबसे प्रसिद्ध गणेश्वर सीकर में स्थित है कालीबंगा  हनुमानगढ़ में गिलुंड राजसमंद में हार्डवेयर झाड़ोल उदयपुर में पिंड पदलिया चित्तौड़गढ़ में कुराड़ा नागौर में सब बढ़िया वह पुंगल बीकानेर में नंदलाल पूरा की रोड व चितवाड़ी जयपुर में एलाना जालौर में बुड्ढा पुष्कर अजमेर में कॉल महोली सवाई माधोपुर में माल है भरतपुर आदि विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं।

कांस्य युगीन सभ्यता

इस युग में मानव कांस्य धातु से परिचित हो गया था और कहां से धातु को बर्तनों एवं अपने औजारों अर्थात अपनी दिनचर्या के कामकाज में इसका उपयोग करने लग गया था।

लोहा युगीन सभ्यता 

इस युग में लोहे का अत्यधिक प्रयोग किया जाता है मानव जाति के द्वारा और वर्तमान समय में भी हम देखते हैं स्टील के बर्तनों को संपूर्ण विश्व में अत्यधिक प्रयोग किया जाता है स्टील के अंदर भी लोग का प्रचुरता में प्रयोग किया जाता है इसलिए यह आधुनिक सभ्यता के अंतर्गत भी आती है तमारा और कांस्य युग के पश्चात मानव को लोहे का ज्ञान हुआ इसका प्रयोग मानव इतिहास के कृषि उपकरणों तथा हथियारों की गुणवत्ता को बढ़ाकर सारे दृश्य को ही बदल दिया राजस्थान में नोंह भरतपुर मैं जोधपुर जयपुर सुंनारी झुंझुनू रेड टोंक आदि स्थानों से लोग संस्कृति के समय के अनेक हथियार और उपकरण मिले हैं। जोधपुर तथा सुनाई से लोहे का गलाने की बढ़िया और अस्तर-शास्त्र तथा उपकरण बनाने के कारखाने के अवशेष मिले हैं। रेड को तो लोग है सामग्री की प्रचुरता के कारण प्राचीन राजस्थान के टाटानगर की संज्ञा दी गई है।

लोहे कल के पश्चात भारत के अन्य भागों की भांति राजस्थान में भी सलेटी रंग की चित्रित मृदभांड संस्कृति का उदय हुआ। इस संस्कृति के अवशेष विराटनगर जयपुर जोधपुर सुंदरी  नोंह भरतपुर आदि स्थानों से प्राप्त होते हैं इस संस्कृति का उदय लगभग 600 पूर्व में हुआ था इसके पश्चात भारतीय इतिहास के साथ राजस्थान के इतिहास का भी ऐतिहासिक युग आरंभ हो जाता है।

राजस्थान की प्राचीन सभ्यताएं


कालीबंगा सभ्यता

प्राचीन दृश्द्वती और  सरस्वती नदी घाटी वर्तमान में घग्गर नदी का क्षेत्र हड़प्पा सभ्यता से भी प्राचीन कालीबंगा की सभ्यता विकसित हुई मानी जाती है। 

राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले में स्थित यह सभ्यता आज से 6000 वर्ष से भी अधिक प्राचीन मानी जाती है। इस स्थल का कालीबंगा नाम यहां से खुदाई के दौरान प्राप्त काली चूड़ियों के कारण पड़ा है क्योंकि पंजाबी भाषा में बंगा का अर्थ होता है चूड़ी। 

सर्वप्रथम है 1952 में कमलानंद घोष ने इसकी जानकारी की और तत्पश्चात 1961 62 में बीबीलाल और B k थापर द्वारा यहां उत्खनन कार्य करवाया गया। 

उत्खनन में इस सभ्यता के पंच तारा सामने आए हैं प्रथम दोस्त और तो हड़प्पा सभ्यता से भी प्राचीन है वहीं तीसरे स्तर चौथे हुए पांचवें स्टार की सामग्री हड़प्पा सभ्यता की सामग्री के सम्मान और समकालीन प्रतीत होती है इस सब आधार पर कालीबंगा की सभ्यता को दो भागों में बांटा गया है प्राक हड़प्पा सभ्यता और हड़प्पा सभ्यता 

कालीबंगा सुव्यवस्थित रूप से बसा हुआ नगर था मकान बनाने में मिट्टी की ईंटों को धूप में पीकर प्रयोग किया जाता था उत्खनन से प्राप्त हुई मिट्टी के बर्तनों एवं उनके आवशे स एकदम हल्के और पतले हैं तथा उनमें सुंदरता का अभाव है बर्तनों का रंग लाल है जिन प्रकार ली और सफेद रंग की रेखाएं अंकित की गई है यहां से जुटे हुए खेत के साक्ष्य मिलते हैं ऐसा अनुमान है कि लोग एक ही खेत में दो फसल उगाते थे जिस प्रकार आज हम बाजार में चना एक ही साल में उगते हैं। कालीबंगा से मिले कब्रिस्तान से यहां के निवासियों की समाधान पद्धतियों की जानकारी मिलती है साथ ही एक बच्चे के कंकाल की खोपड़ी में छह छिद्र मिलते हैं जिसे मस्तिष्क शोध बीमारी के इलाज का प्रमाण माना जाता है अर्थात बच्चों के सिर का ऑपरेशन किया गया था यहां से प्राप्त खिलौना बैलगाड़ी हवन कुंड लकड़ी की नाली व बेलनाकार मोर का हड़प्पा सभ्यता में अपना विशिष्ट स्थान है। राजस्थान की सरकारी नौकरी की परीक्षा में यहां से एक प्रश्न अवश्य पूछा जाता है।

आहड़ सभ्यता

उदयपुर शहर के पास बहने वाली आजाद नदी या अयद नदी के तट पर बसे आजाद के उत्खनन के फल स्वरुप 4000 वर्ष पुरानी पाषाण धातु युगीन सभ्यता के उसे सामने आए हैं। यह सभ्यता एक तिल के नीचे दबी हुई प्राप्त हुई जिसे धूलकोट या धूल या मिट्टी का टीला भी कहते हैं। इस  सभ्यता का, 1953 मे अक्षय कीर्ति विकास एवं उसके बाद रतन चंद्र अग्रवाल एवं एचडी  साखोलीया के निर्देशन में उत्खनन कार्य संपन्न हुआ।
इस सभ्यता के लोग मकान बनाने में धूप में सुखी गई इंटर एवं पत्थरों का प्रयोग किया करते थे आजाद के लोगों ने मृतिको को गहनों में आभूषणों के साथ दफनाने के अवशेष मिलते हैं जो उनकी मृत्यु के बाद भी जीवन की अवधारणा का समर्थक होने का प्रमाण देते हैं उत्खनन में मिट्टी के बर्तन सर्वाधिक मिले हैं जो आहट को लाल काली मिट्टी के बर्तन वाली संस्कृति का प्रमुख केंद्र सिद्ध करते हैं। आजाद का दूसरा नाम तमरावती नगरी भी मिलता है जो यहां तांबे के औजारों एवं कर्ण की अत्यधिक प्रयोग के कारण रखा गया होगा उत्खनन से प्राप्त थपन से यहां रंगी छपाई व्यवसायों के उन्नत होने का अनुमान भी लगाया जाता है।

गिलुंड सभ्यता


राजसमंद जिले में स्थित गिलुंड कस्बे में बनास नदी के तट पर दो तिलों के उत्खनन के फल स्वरुप आठ संस्कृत देश है जुड़ी सभ्यता सामने आई है जिसे बना संस्कृति के नाम से भी जाना जाता है। 1997 में ब लाल के निर्देशन में यहां उत्खनन किया गया। और उसके बाद 1998 से 2003 के मध्य पुणे के डॉक्टर वीएस शिंदे एवं पेंसिलवेलिया विश्वविद्यालय अमेरिका के प्रोफेसर ग्रेगरी कौशल के निर्देशन में या उत्खनन किया गया। उत्खनन में ताम्र युगीन सभ्यता के विशेष अवशेष मिले हैं जिसका समय 1900 से 1700 ईसा पूर्व निर्धारित किया गया है।

गिलुंड से पांच प्रकार की मिट्टी के बर्तन मिले हैं सादे कल पुलिस दर भूरेलाल और कल चित्रित अंकित मृदभांड प्राप्त हुए हैं। उत्खनन में मिट्टी के खिलौने पत्थर की गोलियां एवं हाथी दांत की चूड़ियां के अवशेष मिले हैं। आहड में पक्की इंटर अर्थात आग में पके हुई ईंटें नहीं मिली है जबकि गिलुंड में इनका प्रचुर उपयोग होता था।

गणेश्वर सभ्यता


गणेश्वर सभ्यता नीमकाथाना सीकर में स्थित है यह कटीली नदी के उद्गम पर स्थित ताम्र युगीन संस्कृति का महत्वपूर्ण स्थल है रही है  रतन चंद्र अग्रवाल के निर्देशन में हुए उत्खनन से यहां 2800 इस पर्व की सभ्यता के विशेष प्राप्त हुए हैं गणेश्वर से अत्यधिक मात्रा में तांबे के उपकरण मिले हैं जो इसे सभ्यता से प्राचीनतम सिद्ध करती है यहां से प्राप्त तांबे के उपकरणों व पत्रों में 99% तांबा है अर्थात मिलावट बहुत ही कम एक प्रतिशत है जो इस क्षेत्र में तांबे की प्रचुर प्रताप का प्रमाण है यहां से जो मिट्टी के बर्तन प्राप्त हुए हैं उन्हें करीब क्षण वर्णित पत्र कहते हैं यह बर्तन कल व नीले रंग से सजे हुए हैं गणेश और भारत की ताम्र सभ्यता की जननी माना जाता है यहां तांबा हड़प्पा में मोहनजोदड़ो को भी निर्यात किया जाता था या भेजा जाता था।

राजस्थान में आर्य संस्कृति

हड़प्पा सभ्यता के पतन के पश्चात 1800 ई का पर्व के आसपास भारतीय इतिहास में वैदिक सभ्यता का समय प्रारंभ होता है। इस सभ्यता के बारे में जानने का प्रमुख स्रोत चार वेद हैं ऋग्वेद यजुर्वेद सामवेद और अथर्ववेद है इसलिए इसे वैदिक सभ्यता कहा जाता है राजस्थान में इस सभ्यता के अवशेष अनूपगढ़ तरखान वाला डेरा व चक् 64 से मिले हैं।

महाकाव्य कल में राजस्थान में आर्यों की अनेक बस्तियों के उल्लेख मिलते हैं । रामायण से जानकारी मिलती है कि राम रावण युद्ध के समय जब दक्षिण सागर ने अपने ऊपर सेतु बनवाना स्वीकार नहीं किया तो भगवान राम ने उसे भयभीत करने के लिए खींचा हुआ अपना अमोघ अस्तर राजस्थान की ओर ही फेंका था जिससे यहां समुद्र के स्थान पर मरुस्थल हो गया। युद्ध की आज वैज्ञानिक युग में इस कथा को स्वीकार है नहीं किया जाता है किंतु रामायण के रचयिता राजस्थान के भूभाग से परिचित थे यह तो प्रमाणित होता ही है।

महाभारत में भी राजस्थान के आर्यों को पर्याप्त उल्लेख मिलता है महाभारत के अनुसार राजस्थान का जंगल देश या वर्तमान का बीकानेर कौरव पांडव राज्य के अधीन था और मत्स्य राज्य उनके मित्र था या अधीनस्थ राज्य था कहा जाता है कि पांडवों ने अपने अज्ञातवास का 1 वर्ष बेस बदलकर मत्स्य देश के शासक विराट के दरबार में ही व्यतीत किया था महाभारत युद्ध में विराट अपनी सुना सहित पांडवों की ओर से लड़ता हुआ मर गया था।

भारतीय इतिहास की भारतीय महाभारत के युद्ध के पश्चात से महात्मा बुद्ध के समय तक का राजस्थान का इतिहास भी अंधकार में है क्योंकि इस समय के बारे में जानने के पर्याप्त पुरातात्विक व लिखित साक्ष्य प्राप्त नहीं होते हैं किंतु बुद्ध के समय से भारतीय इतिहास के ऐतिहासिक युग के आरंभ होने के साथ ही राजस्थान के इतिहास के संबंध में भी पहले की अपेक्षा कुछ अधिक स्पष्ट और प्रमाणिक जानकारी मिलने लगती है क्योंकि बौद्ध ग के आधार पर विद्वानों का मत है की छठी शताब्दी ईसा पूर्व में भारतीय राजनीति के रंग मंच पर दो प्रवृत्तियां विशेष रूप है से दिखाई देती हैं प्रथम जनपदों का उदय और दूसरा साम्राज्य विस्तार हेतु जनपदों के मध्य संघर्ष।

16 महाजनपद- उनकी राजधानी

 
अंग- चंपा 
मगध- राजगिरी वैशाली पाटलिपुत्र। 
काशी- वाराणसी। 
वत्स -कौशांबी। 
वज्जी- वैशाली विद्या है मिथिला। 
कौशल- श्रावस्ती। 
अवंती -उज्जैन माहिष्मती। 
माल -कुशावती। 
पांचाल- अहि छतरपुर कातिल। 
चेदी- शक्तिमति । 
कुरु -इंद्रप्रस्थ। 
मत्स्य- विराटनगर। 
कंबोज -पाठकपुर। 
सुरसेन- मथुरा। 
अस्मक -पोतन। 
गंधार- तक्षशिला।

राजस्थान के जनपद

आर्यों के प्रसार के अंतर्गत उसके पश्चात  और उसके पश्चात भारत अन्य भागों की बनती राजस्थान में भी अनेक जनपदों का उदय विकास और पतन हुआ। बौद्ध साहित्य बौद्ध ग्रंथ अंगूतर निकाय से हमें 16 महाजनपदों की सूची प्राप्त होती है जिन में 16 महाजनपद का उल्लेख है प्रयुक्त किया गया हैं। 

राजस्थान में कितने जनपद हैं ?

उनमें से मत्स्य जनपद तो राजस्थान में ही स्थित था और राजस्थान के अनेक भाग कुरु व सुरसेन और अवंती महाजनपदों के अंतर्गत थे इनके अतिरिक्त  327 ईसा पूर्व में सिकंदर के आक्रमणों के कारण अपनी सुरक्षा और अस्तित्व की रक्षा के लिए पश्चिम और उत्तर सीमा से कुछ कबीले जैसे मालव, योधेय और अर्जुनायन राजस्थान में आकर बस गए।
 

   

 शिवी  जनपद कहां स्थित था ?

चित्तौड़ के आसपास का क्षेत्र शिवी जनपद कहलाता था।

मत्स्य जनपद:- आर्य 'जन' के रूप में मत्स्य जाति का उल्लेख है सर्वप्रथम ऋग्वेद में हुआ है जो इसकी प्राचीनता का प्रतीक है। शतपथ ब्राह्मण और कॉस्ट की उपनिषद में भी मत्स्यायन का उल्लेख मिलता है। महाभारत में भी मत्स्य जनपद की गणना भारत के प्रमुख मा जनपदों में की गई है। 

अनुमान है कि दक्षिण में इसका विस्तार चंबल की पहाड़ियों तक और पश्चिम में पंजाब में सरस्वती नदी के जंगलों तक था। इस प्रदेश में आधुनिक जयपुर अलवर धौलपुर करौली वह भरतपुर के कुछ बैग सम्मिलित थे महाभारत काल में मत्स्य जनपद का शासक विराट था जिसने जयपुर में 85 किलोमीटर दूर विराट नगर विराट बसाकर उसे मत्स्य जनपद की राजधानी बनाया। विराट की पुत्री उत्तर का विवाह अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु के साथ हुआ था। इन्हीं का पुत्र परीक्षित कालांतर में पांडवों के राज्य का उत्तराधिकारी बना।

महाभारत काल के पश्चात मत्स्य जनपद के इतिहास के संबंध में अधिक जानकारी नहीं मिलती है।  गोपीनाथ शर्मा का मत है कि महाभारत के बाद गुरु और यादव जनपद निर्बल हो गए इन शक्तिशाली जनपदों की निर्बलता का लाभ उठाकर मत्स्य राज्यशक्ति साली हो गया और उसकी राजधानी विराटनगर की समृद्धि में वृद्धि हुई। 

मत्स्य जनपद के निकट आधुनिक अलवर के कुछ भागों में सालव जाती रहती थी  । आसपास सीमा को लेकर इन दोनों में प्राय संघर्ष होता रहता था सालव की भांति चेदी जनपद भी मत्स्य जनपद का पड़ोसी था ।

 क्योंकि दो पड़ोसी राजनीतिक शक्तियों में प्राय शत्रुता रहती है अतः चेदी और मत्स्य जनपद में भी संघर्ष चलता रहता था। एक अवसर पर चेदी राज्य ने पूर्ण शक्ति के साथ मत्स्य राज्य पर आक्रमण कर मत्स्य जनपद को चेदी जनपद में मिल लिया हनुमान है कि मत्स्य जनपद अधिक समय तक सीधी जनपद किए अधीन नहीं रहा और कुछ समय बाद ही उसने अपनी स्वतंत्रता पूर्ण प्राप्त कर ली कुछ समय बाद ही मत्स्य जनपद मगध की साम्राज्यवादी नीति का शिकार हो गया। 

मगध के सम्राटों ने भारत के अन्य जनपदों की भांति मत्स्य जनपद को भी जीतकर मगध साम्राज्य में शामिल कर लिया। मोरिया के शासनकाल में मत्स्य जनपद मौर्य साम्राज्य के अंतर्गत था। 

मत्स्य जनपद की राजधानी विराट नगर विराट से प्राप्त अशोक का शिलालेख और अन्य मौर्य युगीन अवशेष इस तथ्य का प्रमाण हैं।


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