"पाठ्यक्रम का अर्थ"
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| पाठ्यक्रम का अर्थ , पाठ्यक्रम के प्रकार |
About
आज हम पाठ्यक्रम का अर्थ पाठ्यक्रम की
परिभाषा उसके प्रकार संकुचित और व्यापक
पाठ्यक्रम पाठ्यक्रम की आवश्यकताएं
पाठ्यक्रम के प्रकार पाठ्य पुस्तकों के चयन
का आधार पाठ्यचर्या वह पाठ्यचर्या के
प्रकार पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धांत आदि
के बारे में सरल भाषा में समझेगा।
पाठ्यक्रम का अर्थ
पाठ्यक्रम शब्द आंग्ल भाषा के curriculum
शब्द का हिंदी रूपांतरण है curriculum
शब्द लैटिन भाषा के carrire शब्द से बना है।
जिसका अर्थ होता है दौड़ का मैदान यदि हम
पाठ्यक्रम के शाब्दिक अर्थ पर विचार करें तो हमें
ज्ञात होता है कि पाठ्यक्रम एक मार्ग होता है
जिस पर चलकर बालक अपनी शिक्षा प्राप्त करता
है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो शिक्षा एक दौड़ है
जो पाठ्यक्रम के मार्ग पर दौड़ती है।
पाठ्यक्रम का संकुचित अर्थ
जिस प्रकार संकुचित अर्थों में शिक्षा से
तात्पर्य उस ज्ञान से हैं जो बालक
महाविद्यालय विद्यालय या विश्वविद्यालय
में प्राप्त करता है। ऐसी शिक्षा एक
निश्चित विधि द्वारा एक निश्चित समय
अवधि में पूरी की जाती है। और यह
पुस्तक के ज्ञान तक ही सीमित रहती है।
पाठ्यक्रम का व्यापक अर्थ
शिक्षा के व्यापक अर्थ के अनुसार यह समस्त
संसार शिक्षा का क्षेत्र है और प्रत्येक व्यक्ति
विद्यार्थी है। हर व्यक्ति जीवन पर्यंत कुछ ना
कुछ सीखते रहता है। अतः व्यक्ति का सारा
जीवन ही शिक्षा काल है। शिक्षा प्राप्त करने
का या शिक्षा देने का कोई निश्चित स्थान
नहीं होता सर्वत्र ही शिक्षा प्राप्त करते रहते हैं।
जीवन की छोटी-छोटी घटनाएं हमें शिक्षा देती
रहती हैं ठीक उसी प्रकार व्यापक अर्थों में
पाठ्यक्रम मेरी विभिन्न विषयों के पुस्तक के
ज्ञान तक सीमित न होकर अपने अंदर उस
समस्त अनुभवों को समेटे रहता है जिसे
पुरानी पीढ़ी आने वाली पीढ़ी को स्थानांतरित
करती है।
पाठ्यक्रम की परिभाषा
कनिंघम के अनुसार
कलाकार या शिक्षक के हाथ में यह पाठ्यक्रम एक साधन है जिससे वह पदार्थ (या विद्यार्थी )को अपने आदर्श उद्देश्य के अनुसार अपने स्टूडियो ( स्कूल या विद्यालय) में डाल सके।
प्रॉवेल के अनुसार
पाठ्यक्रम को मानव जाति के संपूर्ण ज्ञान तथा अनुभव का सार समझना चाहिए।
होरन के अनुसार
पाठ्यक्रम वह है जो बालक को पढ़ाया जाता है यह शांतिपूर्ण पढ़ने या सीखने से अधिक है इसमें उद्योग व्यवसाय ज्ञान उपार्जन अभ्यास और क्रियाएं सम्मिलित हैं।
मुनरो के अनुसार
पाठ्यक्रम में वह सब की दुआएं सम्मिलित हैं जिनका हम शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु विद्यालयों में उपयोग करते हैं। संकुचित रूप में।
पाठ्यक्रम के उद्देश्य
शिक्षा एक त्रिमुखी प्रक्रिया है जिसके तीन प्रमुख अंग हैं। पहला शिक्षक दूसरा शिक्षार्थी तीसरा पाठ्यक्रम।
यहां पर हम पाठ्यक्रम के उद्देश्यों के बारे में जानेंगे।
- पाठ्यक्रम को विद्यार्थी के सर्वांगीण विकास हेतु प्रेरणा प्रदान करता है।
- पाठ्यक्रम मानव जाति के अनुभव को सम्मिलित रूप से स्पष्ट करके विद्यार्थी को प्रदान करता है। पाठ्यक्रम विद्यार्थी को अपनी संस्कृति व सभ्यता के बारे में जानकारी प्रदान करता है।
- पाठ्यक्रम को विद्यार्थी में मित्रता ईमानदारी सहयोग सहनशीलता सहानुभूति एवं अनुशासन आदि गुना को विकसित करके नैतिक चरित्र का विकास करना चाहिए।
- विद्यार्थी की चिंतन मनन तारक आदि सभी मानसिक शक्तियों का विकास करना चाहिए।
- विद्यार्थी को पाठ्यक्रम से संबंधित अवस्थाओं क्षमताओं एवं योग्यताओं के अनुसार विभिन्न प्रकार की रचनाओं का विकास करना चाहिए।
- पाठ्यक्रम को ज्ञान तथा खोज की सीमाओं को बढ़ाने के लिए अन्वेषक का सृजन करना चाहिए। पाठ्यक्रम को विश्व तथा क्रियो के बीच की दूरी को कम करके विद्यार्थी के सामने ऐसी क्रियो को प्रस्तुत करना चाहिए जो भावी जीवन के लिए उपयोगी हो।
पाठ्यक्रम की आवश्यकताएं
ज्ञान प्राप्त करने के लिए अन्य जीवों से प्रमुख विनीता मानव की ज्ञान की दृष्टि मानी जाती है। व्यवसाय तथा नौकरियों के लिए तैयार करना। शिक्षा से नौकरियों के लिए तैयार होते हैं और ब्रिटिश काल में बाबू तैयार किए जाते थे।
पाठ्यक्रम के प्रकार या सिद्धांत
बी एड नोट्स इन हिंदी Link-B.Ed First year syllabus & B.Ed-1st Year Nots
विषय केंद्रित पाठ्यक्रम:-
विषय वस्तु के आधार पर
परंपरागत केंद्रित पाठ्यक्रम
वह पाठ्यक्रम जो परंपरा के रूप में चला आ रहा है। प्राचीन समय की घोषणा पर आधारित।
बाल केंद्रित पाठ्यक्रम
बालक को केंद्र मानकर निर्धारित किया गया पाठ्यक्रम।
बालक को व्यावहारिक बनाने के लिए निर्धारित किया गया पाठ्यक्रम।
कार्य केंद्रित पाठ्यक्रम :-
कार्यकुशलता के अनुसार पाठ्यक्रम आधारित प करके सीखने की प्रक्रिया पर आधारित पाठ्यक्रम
अनुभव केंद्रित पाठ्यक्रम:-
अनुभव के आधार पर या अनौपचारिक शिक्षा।
जीवन की स्थाई स्थितियों पर आधारित पाठ्यक्रम
अर्थात स्थाई स्थितियों पर आधारित होता है जो जीवन में हमेशा स्थित है।
सतत विकास पाठ्यक्रम
पाठ्यक्रम सतत विकास करने वाला होना चाहिए और समस्याओं के आधार पर पाठ्यक्रम निर्धारण।
समस्या आधारित पाठ्यक्रम:-
समस्याओं को सुधारने से संबंधित पाठ्यक्रम निर्धारण।
पाठ्यक्रम के आधार
दार्शनिक आधार
पाठ्यक्रम का आधार मनुष्य है।
आदर्शवाद आधार:-
आदर्श का एक प्रमुख आधार होता है पाठ्यक्रम का।
प्रकृतिवाद आधार:
प्रकृति के अनुसार पाठ्यक्रम निर्धारित किया जाना चाहिए ताकि बालक प्रकृति के नजदीक जाकर अपने जीवन को मजबूत कर सके और जीवन को अच्छा बनाया जा सके।
प्रयोजनवादी आधार
पाठ्यक्रम का निर्धारण किसी ने किसी प्रयोजन पर आधारित होना चाहिए जीवन उद्देश्य पूर्ण बनाया जा सके और बालक के भाव जीवन में काम आ सके ऐसा पाठ्यक्रम निर्माण करना चाहिए।
पाठ्यपुस्तक चयन के आधार
पाठ्य पुस्तक के लेखक की योग्यता और पद को देखकर पाठ्यपुस्तक का चयन करना चाहिए।
पाठ्यपुस्तक की गहनता और व्यापकता:- टोपी के बारे में कितना गहनता से उल्लेख है उसको देखकर पुस्तक का चयन करना चाहिए।
पाठ्यवस्तु का प्रस्तुतीकरण:- पाठ्यवस्तु को प्रस्तुत करने का तरीका सुलभ और सरल होना चाहिए ताकि समझ आसानी से आ सके।
स्तर के अनुसार भाषा शैली का होना आवश्यक है।
पाठ्यवस्तु की शुद्धता तो दावत देता:- पाठ्यवस्तु एकदम शुद्ध रूप से और समय के अनुसार होना चाहिए। और प्रमाणित होनी चाहिए जिससे सही विषय वस्तु पहुंच सके।
छात्रों की दृष्टि से उपयुक्तता:- अलग-अलग वर्ग के छात्रों के अनुसार पाठ्यपुस्तक होनी चाहिए। बालकों के सर्वांगीण विकास में सहायक हो।
पाठ्यचर्या
पाठ्यचर्या के लिए अंग्रेजी में curriculum शब्द का प्रयोग किया जाता है जिसका अर्थ दौड़ का रास्ता या दौड़ का क्षेत्र शाब्दिक अर्थ में पाठ्यचर्या छात्रों के लिए दौड़ का रास्ता था। दौड़ के मैदान के सम्मान है जिस पर चलते हुए छात्र अपने मानचित्र उद्देश्यों को पूरा करता है।
बवेकर के अनुसार
पाठ्यचर्या एक ऐसा करम है जो किसी व्यक्ति द्वारा गंतव्य स्थान तक पहुंचने के लिए तय किया जाता है
रोबट यूलीक के अनुसार
शिक्षा के लक्ष्य तक पहुंचने के लिए जिन अध्ययन परिस्थितियों की रूपरेखा बनाई जाती है उसे पाठ्यचर्या कहते हैं।
पाठ्यचर्या के प्रकार
1) विषय केंद्रित पाठ्यचर्या
2) बाल केंद्रित पाठ्यचर्या:-
जेंट्स का कथन:- बाल केंद्रित पाठ्यचर्या वह है जो पूर्णत और समग्र रूप से सीखने वाले में निहित होती है।
3) अनुभव केंद्रित पाठ्यचर्या और क्रिया केंद्रित पाठ्यक्रम
4)शास्त्रीय पाठ्यचर्या
पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धांत
1) बाल केंद्रित दृष्टिकोण का सिद्धांत
बालक को खाली दिमाग समझा गया और शिक्षक उसको ज्ञान प्रदान करता है। बालक की भूमिका मुख्य है।
2) व्यक्ति एवं सामाजिक अनुरूपता का सिद्धांत
ऐसी पाठ्यचर्या का निर्माण करें जिससे बालक एक सामाजिक प्राणी बन सके।
3) अनुभवों की पूर्णता का सिद्धांत
अनुभव के आधार पर पाठ्यचर्या का निर्माण करना चाहिए जिससे बालक के अच्छे व्यक्तित्व का निर्माण हो सके।
4)उपयोगिता का सिद्धांत
ऐसी पाठ्यचर्या का निर्माण करें जो समाज और बालक दोनों की उपयोगिता को पूरा करें।
5) सृजनात्मकता का सिद्धांत
एक ऐसी पाठ्यचर्या का निर्माण करें जिससे बालक में सृजनात्मकता का विकास हो और बालक सृजनशील हो सके। बालक को कल्पनाशील बनाया जा सके।
6) खेल में कार्य में समन्वय
ऐसी पाठ्यचर्या का निर्माण हो जिसके साथ में पाठ्य सहगामी क्रियाओं को शामिल किया जाए। ताकि बालक बाहरी जीवन को आसानी से समायोजन हो सके।
Unit- 1
अनुशासनात्मक ज्ञान
अनुशासनिक ज्ञान का संबंध शिक्षा व्यवस्था एवं उससे संबंधित प्रत्येक गतिविधि से है। इसमें पाठ्यक्रम को समग्र रूप प्रदान करना शिक्षा शास्त्री मुद्दों एवं सर्वांगीण विकास की प्रक्रिया को सम्मिलित किया जा सकता है।
प्रोफेसर एस के दुबे के अनुसार
अनुशासनिक ज्ञान का आशय उन नियमों सिद्धांतों एवं परंपराओं से है जो शिक्षा के माध्यम से सामाजिक राजनीतिक आर्थिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था में शह संबंध एवं अंतर अनुशासन स्थापित करने में सहायता करते हैं। जिससे एक शिक्षक का कार्य एवं व्यवहार सर्वोत्तम बनता है तो दूसरी ओर छात्रों का सर्वांगीण विकास संभव होता है जिससे एक विकसित समृद्धशाली राष्ट्र का निर्माण संभव होता है।
अनुशासनिक ज्ञान की प्रकृति
अनुशासनिक ज्ञान को एक व्यापक भीम के रूप में स्वीकार किया जाता है क्योंकि इसमें प्रत्येक क्षेत्र संबंधी नियमों एवं विषयों की समीक्षा की जाती है। शिक्षा की व्याख्या को क्रमबद्ध एवं सर्वोत्तम रूप में संपन्न करने के लिए इसके प्रत्येक क्षेत्र पर व्यापक विचार विमर्श किया जाता है।
अनुशासनिक ज्ञान एवं सहसंबंध की प्रक्रिया के रूप में
अनुशासनिक ज्ञान के अंतर्गत प्रत्येक विषयों से शह संबंध स्थापित किया जाता है। इस शह संबंध के आधार पर ही उन विषयों को एक वर्ग में रखा जाता है जैसे विज्ञान गणित और कंप्यूटर आदि विषयों को एक साथ रखा जाता है। तथा इन विषयों को विज्ञान वर्ग से संबंधित माना जाता है।
अनुशासिनी ज्ञान का राष्ट्रीय समृद्धि में योगदान
अनुशासनिक ज्ञान का उपयोग शैक्षणिक सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में व्यापक रूप से किया जाता है अतः अनुशासिक ज्ञान ही राष्ट्रीय समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करता है। जैसे एक देश में शिक्षा के क्षेत्र में अनुशासित ज्ञान का उपयोग कर प्रत्यक्ष स्तर पर सर्वोत्तम पाठ्यचर्या का निर्माण होता है जिससे छात्रों का सर्वांगीण विकास हो सके। जिससे राष्ट्रीय समृद्धि प्राप्त की जाती है।
अनुशासनिक ज्ञान का सर्वांगीण विकास में योगदान
अनुशासनिक ज्ञान के माध्यम से प्रत्येक क्षेत्र में क्रमबद्धता सरलता एवं उपयोगिता स्थापित की जाती है। इससे शिक्षा के क्षेत्र में किसी भी तरह की भी संगतिया नहीं रहती हैं तथा शैक्षणिक व्यवस्था प्रत्येक दृष्टि से क्रमबद्ध एवं अनुशासित होती है। इससे सभी छात्र का शैक्षणिक विकास होता है शिक्षा की सर्वोत्तम व्यवस्था के आधार पर ही छात्रों का सर्वांगीण विकास संभव होता है।
अनुशासन ज्ञान की 21वीं सदी तक की उत्पत्ति एवं सामान्य वृद्धि
अनुशासनिक ज्ञान का संबंध प्राचीन काल से ही शिक्षा व्यवस्था से रहा है। अनुशासनिक ज्ञान व्यवस्था को नवीनतम रूप देने का प्रयास प्राचीन काल से ही शिक्षा व्यवस्था को वर्तमान समय तक किया गया है। वर्तमान समय में इसका स्वरूप पूर्णतया प्रभावी उपयोगी माना जाता है। इसमें होने वालों प्रत्येक परिवर्तन सामाजिक आकांक्षाओं की पूर्ति करने वाला है। अतः विभिन्न विषयों में अनुशासनिक ज्ञान की उत्पत्ति एवं सामान्य वृद्धि को निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है:-
- प्राकृतिक विज्ञान में अनुशासनिक ज्ञान की उत्पत्ति एवं सामान्य वृद्धि।
- सामाजिक विज्ञान में।
- वास्तु शास्त्र में।
- पाठ्यक्रम में।
- विषयों में।
- संकाय में।
- शिक्षक वीधियो में।
- शिक्षण अधिगम में।
- अधिगम गतिविधियों में।
- विद्यालय प्रबंधन में।
- सामाजिक संरचना में।
प्राकृतिक विज्ञान में अनुशासनिक ज्ञान की उत्पत्ति एवं सामान्य वृद्धि:-
प्राकृतिक विज्ञान में अनुशासनिक ज्ञान की उत्पत्ति प्रारंभ कल से ही देखी जा सकती है प्राचीन काल में विज्ञान के समस्त विषयों को क्रमबद्ध एवं सुसंगठित रूप में प्रस्तुत किया जाता था जैसे ज्योतिष विज्ञान खगोल विज्ञान आयुर्वेद एवं बूरा विज्ञान को विज्ञान संकाय में रखा जाता था धीरे-धीरे इस संकाय में भौतिक विज्ञान रासायनिक विज्ञान एवं जीव विज्ञान को भी सम्मिलित किया गया। वर्तमान समय में तकनीकी शिक्षा एवं कंप्यूटर शिक्षा को भी विज्ञान संकाय में माना जाता है।
सामाजिक विज्ञान अनुशासनात्मक ज्ञान:-
सामाजिक विज्ञान भी प्राचीन काल से अध्ययन का प्रमुख विषय रहा है नीति शास्त्र वर्ण व्यवस्था कम व्यवस्था एवं आश्रम व्यवस्था को क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत किया जाता था तथा विधिवतें जाति लिंग धर्म एवं अवस्था के आधार पर नियमों को प्रस्तुत किया जाता था राजा का धर्म प्रजा का धर्म ग्रस्त का धर्म एवं अन्य व्यक्तियों के धाम इन विज्ञानों के प्रमुख विषय होते थे। वर्तमान समय में प्रत्येक विषय का पृथक विकास हुआ है। अब प्राकृतिक विज्ञान में समाजशास्त्र अर्थशास्त्र राजनीति शास्त्र भूगोल एवं इतिहास को भी सम्मिलित किया जाता है पर्यावरण अध्ययन को भी इसी का अंग माना जाता है। वर्तमान समय में समाज के चहुमुखी विकास के लिए इस संकाय के विश्व में व्यापक रूप से वृद्धि होती जा रही है।
अनुशासिनिक ज्ञान का पाठ्यक्रम में महत्व :-
प्राचीन काल में विद्यालय विषय के पाठ्यक्रम में क्रमबद्धता की स्थिति देखी जाती थी। प्राचीन काल में बालकों को सर्वप्रथम गुरुकुल में संस्कृत के नियमों एवं व्याकरण का ज्ञान कराया जाता था। बाद में वेदों का ज्ञान कराया जाता था इस प्रकार पाठ्यक्रम का स्वरूप सरल से कठिन की ओर तथा सामान्य से विशिष्ट की ओर चलता था वर्तमान समय में भी इस क्रम का अनुकरण किया जाता है। वर्तमान समय में पाठ्यक्रम अधिकतम गतिविधियों एवं पाठ्यक्रम में सहगामी क्रियो का समावेश किया गया है।
अनुशासनिक ज्ञान का शिक्षण अधिगम में महत्व
शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में प्राचीन काल में एक अनुशासनिक व्यवस्था होती थी जैसे एक गुरु अपने शिष्यों को ज्ञान प्रदान करने से पूर्व उनकी रुचि एवं योग्यता स्तर को ज्ञात करता था इसके उपरांत ज्ञान प्रदान करता था। वर्तमान समय में भी शिक्षण अधिगम प्रक्रिया तभी प्रभावी रूप से संपन्न होती है जब उसके मध्य अनुशासन होता है जैसे बाल केंद्रित शिक्षा प्रणाली के अंतर्गत शिक्षक की भूमिका गुण होती है एवं बालक की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।
अनुशासनिक ज्ञान का विद्यालय प्रबंधन में महत्व:-
विद्यालय प्रबंधन की प्रक्रिया प्राचीन काल में गुरुओं एवं राजाओं के महत्व की नहीं थी। क्योंकि राज परिवार एवं उच्च परिवार के बालकों को ही समानता शिक्षा प्रदान की जाती थी। धीरे-धीरे परिवर्तन होने पर शिक्षा सभी का अधिकार बने। वर्तमान समय में विद्यालय प्रबंधन समिति एवं शिक्षा समितियां का प्रचलन है। जिसमें शिक्षक जनप्रतिनिधि अभिभावक स्वास्थ्य कार्यकर्ता एवं अन्य उपयोगी व्यक्तियों को सम्मिलित किया जाता है।
विद्यालय पाठ्यक्रम में अनुशासनिक ज्ञान की भूमिका:-
अनुशासनिक ज्ञान का संबंध प्रमुख रूप से पाठ्यक्रम से होता है। अनुशासनिक ज्ञान के आधार पर ही पाठ्यक्रम में विविध प्रकार के परिवर्तन किए जाते हैं पाठ्यक्रम में इसकी भूमिका को निम्नलिखित बिंदुओं के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है।:-
- पाठ्यक्रम निर्माण में भूमिका।
- पाठ्यक्रम परिवर्तन में भूमिका।
- पाठ्यक्रम सहभागी गतिविधियों में भूमिका।
- सह संबंध निर्धारण में भूमिका।
- पाठ्यक्रम में व्यापकता का समावेश।
- पाठ्यक्रम में आधुनिकता का समावेश।
- वैज्ञानिकता का पाठ्यक्रम में समावेश।
- पाठ्यक्रम में प्रमुख उद्देश्यों का समावेश।
- पाठ्यक्रम में सामाजिक अनुशासन का समावेश।
- पाठ्यक्रम में राष्ट्रीय समृद्धि का समावेश।
- पाठ्यक्रम में उपयोगिता का समावेश।
- व्यापक दृष्टिकोण का पाठ्यक्रम में समावेश।
- सांस्कृतिक गतिविधियों का पाठ्यक्रम में समावेश।
- पाठ्यक्रम में क्रमबद्धता का समावेश।
Unit-3
पाठ्यक्रम में विषय वस्तु चयन के मानदंड
प्रस्तावना
पूर्व की इकाइयों का अध्ययन उसके पश्चात आप वह समझ गए होंगे कि ज्ञान क्या होता है? एवं किसी संपूर्ण ज्ञान के स्रोत क्या-क्या होते हैं एक ही तरह के मिलते-जुलते ज्ञान जो मानव मस्तिष्क के किसी विशेष भाग को प्रभावित करते हैं को आम भाषा में विद्या कहा जा सकता है। किसी भी विद्या में पाए जाने वाले ज्ञान को अगर ध्यान पूर्वक एवं पूर्ण सावधानी के साथ विश्लेषण कर वर्गीकृत किया जाएगा।
उद्देश्य
विषय वस्तु चयन से संबंधित महत्वपूर्ण सिद्धांतों को बता सकेंगे।
विषय वस्तु संरचना से संबंधित घटकों का वर्णन कर सकेंगे। विषय वस्तु के विभिन्न घटकों का एकीकरण की प्रक्रिया को समझ सकेंगे। विषय वस्तु अनुक्रम की वीडियो को समझ सकेंगे। विषय वस्तु की अनुक्रम की वीडियो को ध्यान में रखते हुए किसी भी विषय वस्तु का अनुक्रमण कर सकेंगे।
विषय वस्तु चयन का सिद्धांत
किसी पाठ्यक्रम को आप सफल कैसे बना सकते हैं? किसी भी पाठ्यक्रम को संपूर्ण एवं सफल बनाने के लिए यह जरूरी है कि वह अपने शैक्षिक उद्देश्यों को प्राप्त कर सके और साथ ही साथ अपने संरचना में विषय वस्तु को प्रतिपादित कर सके। अर्थात पाठ्यक्रम अपने सभी विषयों के माध्यम से एक संपूर्ण समाज को दर्शाता है।
सार्थकता का सिद्धांत
सार्थकता के सिद्धांत के अनुसार किसी भी वस्तु का चयन तभी सार्थक हो सकता है जब वह विषय वस्तु बालकों के रुचि प्रयोजन आदि को पूरा करता हो। जब बालकों का समूह अलग-अलग सामाजिक व सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से संबंध रखते हैं। सरल शब्दों में कहा जाए तो वह विषय वस्तु सार्थक है।
स्वयं संपूर्णता का सिद्धांत
किसी भी वस्तु को पढ़ने के लिए अगर कम से कम संसाधन एवं सरल शैक्षणिक प्रयास पर्याप्त हो और इसके फल स्वरुप बालकों का शैक्षणिक निष्पादन आशा अनुरूप हो तो इस प्रकार के विषय वस्तु को हम स्वयं संपूर्ण विषय वस्तु कह सकते हैं।
उपयोगिता का सिद्धांत
प्रत्येक छात्र को अपने छात्र जीवन में कुछ खास प्रश्नों का सामना करना पड़ता है जैसे क्या वह विषय व्यवसाय या नौकरी में सहायक सिद्ध होगा। क्या वह विषय मेरे आंतरिक क्षमताओं के विकास में सहायक होगा? यह सभी प्रश्न सिर्फ एक ही तरफ निर्देशित करते हैं।
रोचकता का सिद्धांत
विषय वस्तु के चयन के दौरान रोचकता का सिद्धांत का प्रयोग दो स्तर पर किया जाता है। पहले तो विषय वस्तु चयन के समय बालकों के समूह का ध्यान रखना अत्यंत आवश्यक है। दूसरे स्तर पर उसे सिद्धांत का प्रयोग विषय वस्तु के प्रस्तुतीकरण के लिए आवश्यक होता है।
स्कूल के पाठ्यक्रम के एक विषय क्षेत्र को शामिल करने या हटाने के मापदंड
विद्यालय पाठ्यक्रम में विश्व के समावेशीय बहिष्कार निश्चित मानकों आधारों एवं सिद्धांतों के फल स्वरुप होती है सभी प्रकार के विषयों के समावेश एवं बहिष्कार की कसौटी सामाजिक एवं राजनीतिक व्यवस्था पर निर्भर करती है। क्योंकि जब-जब सामाजिक परिवर्तन होता है शिक्षा व्यवस्था में भी व्यापक परिवर्तन होता है। इस परिवर्तन की प्रक्रिया में राजनीतिक व्यवस्था में परिवर्तन होता है।
समावेश एवं बहिष्कार के मापदंड के दो आधार हैं पहले सामाजिक कसौटी या मापदंड और दूसरा राजनीतिक मापदंड
सामाजिक मापदंड
समाज उपयोगिता होनी चाहिए।
सामाजिक महत्व होना चाहिए।
सामाजिक विकास से संबंधित होना चाहिए। सामाजिक संस्कृति से संबंधित होना चाहिए। सर्वांगीण विकास से संबंधित होना चाहिए।
सामाजिक मूल्यों से संबंधित होना चाहिए।
मानवीय मूल्य से संबंधित होना चाहिए।
वैश्विक समाज से संबंधित होना चाहिए।
वैश्विक और संस्कृत से संबंधित होना चाहिए। सामाजिक अपेक्षाओं के अनुरूप होना चाहिए। आर्थिक विकास से संबंधित होना चाहिए। समसामयिकी से संबंधित होना चाहिए।
अनुशासन से संबंधित होना चाहिए।
सामाजिक से संबंधित होना चाहिए।
राजनीतिक मापदंड
राजनीतिक उपयोगिता होनी चाहिए। राजनीतिक महत्व होना चाहिए। राजनीतिक विकास से संबंधित होना चाहिए। राजनीतिक संस्कृति से संबंधित होना चाहिए। राजनीतिक व्यवस्था से संबंधित होना चाहिए। राजनीतिक मूल्यों से संबंधित होना चाहिए। राजनीतिक सहभागिता से संबंधित होना चाहिए। राजनीतिक उत्तरदायित्व से संबंधित होना चाहिए। राजनीतिक जागरूकता से संबंधित होना चाहिए। राजनीतिक अपेक्षाओं से संबंधित होना चाहिए। वैश्विक राजनीतिक व्यवस्था से संबंधित होना चाहिए। राजनीतिक दर्शन से संबंधित होना चाहिए। राजनीतिक अनुशासन से संबंधित होना चाहिए।
Unit- 5
पाठ्यचर्या पाठ्यक्रम और पाठ्य पुस्तक में अंतर
पाठ्यक्रम पाठ्यचर्या और पाठ्य पुस्तक तीनों ही शैक्षणिक व्यवस्था से संबंधित है। अनुशासनिक गन की दृष्टि से इन तीनों में कोई अंतर नहीं होता परंतु स्वरूप उद्देश्य एवं प्रक्रिया के आधार पर इसमें व्यापक अंतर पाया जाता है। इन तीनों के अंतर को निम्नलिखित रूप से स्पष्ट किया जा सकता है:-
पाठ्यचर्या= पाठ्यक्रम(syllabus)पाठ्य + सहगामी क्रियाएं (जैसे स्काउट गाइड खेलकूद आदि)
- क्षेत्र के आधार पर अंतर।
- उद्देश्य के आधार पर अंतर।
- गतिविधियों के आधार पर अंतर।
- दृष्टिकोण के आधार पर अंतर।
- उपयोगिता के आधार पर अंतर।
- चिंतन ने उत्तर के आधार पर अंतर।
- पक्ष के आधार पर अंतर।
- आकांक्षाओं की पूर्ति के आधार पर अंतर
- उद्धव के आधार पर अंतर
- संसाधनों के आधार पर अंतर।
- उत्तरदायित्वों के आधार पर अंतर।
क्षेत्र के आधार पर अंतर
क्षेत्र के आधार पर पाठ्यक्रम का स्वरूप सीमित रूप का माना जाता है। क्योंकि पाठ्यक्रम किसी भी विद्यालय व्यवस्था के संदर्भ में सूची प्रस्तुत करता है जैसे प्राथमिक स्तर पर हिंदी गणित विज्ञान एवं पर्यावरण अध्ययन आदि विषयों को पढ़ाया जाना आवश्यक है। पाठ्यक्रम इसके अतिरिक्त कुछ नहीं बोलता है। पाठ्यचर्या में प्रत्येक विषय के लिए निर्धारित गतिविधियों एवं उपलब्ध संसाधनों की व्यवस्था होती है। जैसे पर्यावरण अध्ययन के शिक्षक के लिए किस प्रकार की गतिविधि का आयोजन होगा।
उद्देश्य के आधार पर अंतर
पाठ्यक्रम के माध्यम से किसी उद्देश्य का निर्धारण नहीं होता। परंतु पाठ्यक्रम किसी उद्देश्य विशेष की पूर्ति के लिए निश्चित किया जाता है जैसे सर्वांगीण विकास के उद्देश्य की पूर्ति के लिए छात्रों को प्राथमिक स्तर पर नैतिक शिक्षा सामाजिक परिवेश अंग्रेजी एवं संस्कृति आदि विषय पढ़ना चाहिए। पाठ्यचर्या के उद्देश्यों का निर्धारण किया जाता है उसके अनुरूप व्यवस्था तैयार करने के लिए प्रयास किया जाता है। जैसे छात्रों के समांगीण विकास के उद्देश्य को प्राप्त करना वर्तमान समय में अनिवार्य है। पाठ्य पुस्तक में सर्वांगीण विकास के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए सामग्री का प्रस्तुतीकरण किया जाता है जैसे पर्यावरण या संरक्षण संवर्धन एवं संतुलन के लिए निर्धारित पाठ्य पुस्तक में पर्यावरण से संबंधित सभी तथ्यों पर व्यापक रूप से विचार किया जाएगा तथा इस पर विस्तृत सामग्री प्रस्तुत की जाएगी।
पाठ्यक्रम का विकास
कोई भी पाठ्यक्रम अपने प्रारंभिक रूप में एक निश्चित क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है। धीरे-धीरे अनेक प्रकार की शैक्षणिक सामाजिक एवं राष्ट्रीय आकांक्षाओं की पूर्ति हेतु पाठ्यक्रम के स्वरूप में परिवर्तन करते हुए उसके विकास का मार्ग प्रशस्त किया जाता है। पाठ्यक्रम विकास की प्रक्रिया तथा विभिन्न प्रकार के उपागम का उसमें समावेश उसमें आवश्यकता अनुसार समय-समय पर किया जाता है। सामाजिक और राजनीतिक आवश्यकताओं के आधार पर।
पाठ्यक्रम विकास की प्रक्रिया
पाठ्यक्रम विकास की प्रक्रिया का आशय उन समस्त तत्वों के क्रियात्मक पक्ष से है जो कि अपने प्रभाव एवं विशेषताओं के आधार पर पाठ्यक्रम विकास की प्रक्रिया को संपन्न करती है। उदाहरण के लिए अभिभावकों का एक वर्ग यह चाहता है कि उसके बालक प्राथमिक स्तर से ही पर्यावरण स्वच्छता एवं व्यक्तिगत स्वच्छता के प्रति सहजन रहे। इस वर्ग की इस आकांक्षा का प्रतिनिधित्व जब व्यापक स्तर पर होता है तो विज्ञान के पाठ्यक्रम में ही व्यक्तिगत स्वच्छता एवं परिवेश या स्वच्छता संबंधी विषय वस्तु का समावेश कर दिया जाता है।
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